Thursday, November 18, 2010

Mahayana cult in Buddhism

'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' में तांत्रिक साधना

बौद्ध तान्त्रिक ग्रन्थों में 'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें बुद्ध को बोधिसत्व के रूप में भगवान्‌ माना गया है और महायान-परम्परा के मूल सिद्धान्तों के आधार पर साधक द्वारा उनके प्रत्यक्षीकरण और उनके द्वारा प्रदत्त वर से सकल मनोरथ सिद्धि की बात कही गयी है। इसके साथ अलौकिक सिद्धियों मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, आकर्षण आकाशगमन आदि के लिए विभिन्न तान्त्रिक क्रियाओं का वर्णन है। सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, भोग-विलास के लिए अनेक प्रकार की सकाम उपासना यहाँ वर्णित है।
चीनी यात्री फाहियान ने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि पाटलिपुत्र में मद्द्रजुश्री नामक एक महायानी ब्राह्मण रहते हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ पायी है। फाहियान ने इस इत्सिंग ने अपने ग्रन्थ में दो स्थानों पर मंजुश्री की चर्चा की है और लिखा है कि भारतीयों यह विश्वास है कि मंजुश्री हैं और आज भी महाचीन में जीवित हैं। इत्सिंग द्वारा दी गयी इस सूचना से दो बातें स्पष्ट हैं कि महाचीन सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में महायानी तान्त्रिक साधना के केन्द्र के रूप में विखयात था और भारत में भी मंजुश्री द्वारा प्रवर्तित साधनाएँ पर्याप्त प्रचलित थीं। इस प्रकार 'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' के अध्ययन से सातवीं-आठवीं शती में बौद्ध-साधना की दशा एवं दिशा पर प्रकाश पड़ता है।
'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' का एक संस्करण अनन्तशयन संस्कृत ग्रन्थावली के अन्तर्गत १९२० ई० में टी. गणपति शास्त्री के सम्पादन में प्रकाशित हुआ, जिसका पुनर्मुद्रण १९९२ ई. में सी.बी.एच प्रकाशन, त्रिवेन्द्रम्‌ से हुआ है। मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा से भी इस ग्रन्थ का एक संस्करण महायानसूत्र संग्रह नाम से दो भागों में डा.पी.एल. वैद्य के सम्पादन में हुआ है। प्रस्तुत आलेख के लिए मैंने आधार ग्रन्थ के रूप में सी.बी.एच. प्रकाशन द्वारा पुनर्मुद्रित प्रति का उपयोग किया है।
इस ग्रन्थ की भूमिका में टी. गणपति शास्त्री ने उल्लेख किया है कि १९०९ ई. में पद्‌मनाभपुरम्‌ के निकट मनलिक्कर मठ में उन्हें तालपत्र पर देवनागरी लिपि में लिखित ३००-४०० वर्ष प्राचीन पाण्डुलिपि मिली। इसकी पुष्पिका के अनुसार मध्यदेश के मूलघोष विहार के अधिपति पण्डित रविचन्द्र ने आर्यमंजुश्री के यथालब्ध कल्प को लिपिबद्ध किया। इस पुष्पिका से दो बातें स्पष्ट होती हैं कि आर्यमंजुश्री के अनेक कल्प थे तथा बौद्ध-बिहारों के अधिपति भी इन तान्त्रिक-कल्पों साधना मार्गों के संकलन के लिए प्रयासरत रहते थे। इस ग्रन्थ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि एक साधना की अनेक विधियों का वर्णन भिन्न-भिन्न पटलों में किया गया है। इस प्रकार की विविधता इन साधनाओं की लोकप्रियता प्रमाण है।
इस ग्रन्थ में अनेक प्रयोंगों में माँस से आहुति देने का विधान किया गया है। इसके ४१वें पटल में कहा गया है कि मनुष्य के मांस को घी के साथ मिलाकर धूप देने से पुष्टि होती है। मनुष्य की हड्‌डी का चूर्ण कौआ तथा उल्लू के पंख से धूप देने पर शत्रु की मौत होती है। गाय का पित्त, मनुष्य की हड्‌डी तथा घी का धूप देने से भी शत्रु की मौत होती है। मछली का अण्डा, प्रसन्ना और कपास की लकडी का धूप देने पर विदेश गया व्यक्ति भी लौट आता है। मसूर की दाल, मांस तथा मुर्गी के अंडा से धूप देने पर आकर्षण होता है। मूल पंक्ति इस प्रकार हैः-
महामांस घृतेन सह धूपः पुष्टिकरणम्‌। मानुषास्थिचूर्णं काकोलूकपक्षाणि च धूपः मारणम्‌। ..... गोपित्तं मानुषास्थि च घृतेन शत्रोर्मारणे धूपः।
मत्स्याण्डं प्रसन्ना च कर्पासास्थिसमन्वितम्‌।
देशान्तरगतस्य धूपः शीघ्रमानयति नरम्‌॥
विदलानि मसूराणां मांसं कुक्कुटाण्डस्य तु। पृ. ४६३
बौद्ध तान्त्रिक-परम्परा में सहजयान और वज्रयान का उद्‌भव आठवीं शती के आरम्भ में हो चुका था, जिसमें साधिका को भी स्थान दिया गया है, किन्तु मंजुश्री की इस परम्परा में साधिका का कोई स्थान नहीं है और साधना के नाम पर यौनाचार सम्बन्धी संकेत नहीं है। हाँ, पुरुष साधकों की यौनेच्छापूर्ति के लिए यक्षिणी-साधन, आकर्षण के द्वारा सुन्दरियों का आनयन, साधना के द्वारा पत्नी को ही चिरयौवना बनाने की विधियाँ यहाँ हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यमंजुश्री की यह साधना-परम्परा आठवीं शती से प्राचीन है।
फाहियान और इत्सिंग द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि ईसा की पाँचवीं शती से आठवीं शती तक उत्तरपूर्व भारत से महाचीन तक महायानशाखा में मंजुश्री की साधना-परम्परा बौद्ध साधकों एवं सामान्य गृहस्थों में पर्याप्त प्रचलित थी।
आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में पचपन पटल हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में गद्य एवं पद्य का मिश्रण है। इसकी भाषा संस्कृत है, किन्तु पाणिनीय व्याकरण के नियमों की पर्याप्त उपेक्षा की गयी है। विभक्ति, लिंग और वचनों में व्यत्यय है। किन्तु नाम शब्द अपने प्रचलित अर्थ में है, सांकेतिक अर्थ में नहीं। जैसे वज्र साधना के क्रम में 'वज्र' शब्द एक अस्त्र-विशेष के लिए प्रयुक्त है जो लोहा का बना हो, सोलह अंगुल लम्बा हो और दोनों ओर त्रिशूल हो- ''अथ वज्रं साधयितु कामः पुष्पलौहमयं वज्रं कृत्वा षोडशांगुलं उभयत्रिशूलकं ++++++। किन्तु यह 'वज्र शब्द परवर्ती बौद्ध-तत्र में वज्रयान में पुरुष जननेन्द्रिय के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतः मंजुश्री की यह परम्परा प्राचीनतर प्रतीत होती है।
आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के प्रथम परिवर्त में ग्रन्थ की अवतरणिका के अनुसार भगवान्‌ बोधिसत्त्व एकबार आकाशतल में बोधिसत्त्वसन्निपातमण्डल में प्रतिष्ठित होकर देवपुत्रों को बुलाया और पृथ्वीलोक के वासियों के हितकारक मन्त्रों का उपदेश किया तथा अपने सबसे प्रिय पुत्रस्वरूप कुमार मंजुश्री को पृथ्वी लोक में इन मन्त्रों के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा। इनके साथ अनेक विद्याधर, सिद्ध, वज्रपाणि विद्याराज्ञी भी लोगों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर आये। यहाँ विद्याराज्ञी की जो सूची है, उसमें तारा, जया, विजया अजिता अपराजिता, भ्रमरी, भ्रामरी आदि देवी' के रूप में सनातन आगम-परम्परा में भी प्रतिष्ठित हुई।
इस तन्त्र में साधना के स्वरूप का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि सनातन परम्परा में आगम-शास्त्र की पद्धति के साथ इसकी पर्याप्त समानता है।
अथर्ववेद की साधना-परम्परा होमपरक है। विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए अथर्ववेद के मन्त्रों से विभिन्न औषधियों, हव्यपदार्थों से आहुति, मणिबन्धन, प्रतिसर बन्धन, अरिष्टाबन्धन आदि का विधान है। इस परम्परा में बीजाक्षरों का प्रयोग नहीं हुआ है। बीजाक्षर आगम-साधना पद्धति की विशेषता है। साथ ही, पूजा के साधन के रूप में पुष्प, अक्षत, चन्दन, नैवेद्य, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय ये सब भी वैदिक उपासना में प्रयुक्त न होकर आगमीय-पद्धति में प्रयुक्त हुए हैं।
इस आगम परम्परा का विकास कब हुआ, यह कहना कठिन है। वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड में भी कौशल्या द्वारा देवताओं की पूजा फूल चढ़ाकर करने का उल्लेख है। कालिदास ने 'अर्घ्य' का प्रयोग किया है। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में घोसुण्डी के नारायण-वाटिका शिलालेख में वासुदेव की पूजा उल्लेख है।
किन्तु मन्त्र में बीजाक्षर का प्रयोग सर्वप्रथम बौद्ध-परम्परा में दृष्टिगोचर होता है,, जिसे कालान्तर में आगम-परम्परा में स्वीकार किया गया। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में इन बीजाक्षरों का प्रचुर प्रयोग है- हूँ, रु, फट्‌, ट, निः, धु, धुर, भ्रां, क्रां, क्रीं आदि बीजाक्षरों से बने मन्त्रों के जप एवं हवन का विधान यहाँ किया गया है।
इस ग्रन्थ में पट-साधन का उल्लेख हुआ। पट पर बोधिसत्त्व, मंजुश्री, तारा, भ्रूकुटी, अवलोकितेश्वर, अप्सरा, नागराज, यमराज आदि का चित्र बनाकर उस पट की विधिवत्‌ विस्तृत पूजा कर उसे प्रतिष्ठित करने का विधान है। इस क्रम में चित्र निर्माण की विधि, रंग-निर्माण, चित्र बनाने योग्य पट का निर्माण तथा बोधिसत्त्व की विभिन्न मुद्राओं का वर्णन है। साथ ही, तारा आदि अंग देवता की भी मुद्राएँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हमें तारा के प्राचीन स्वरूप का दर्शन होता है जो दश महाविद्या की तारा से तो सर्वथा भिन्न है ही, बल्कि बौद्धों की तारा की जो प्राचीन मूर्तियाँ मिलती हैं उससे भी भिन्न है।

Tuesday, November 2, 2010

Tradition of Dipavali in Mithila

तीन प्रकारक जे रात्रि कालरात्रि, महारात्रि आ मोहरात्रि कहल गेल अछि ताहि में पहिल कालरात्रि दीपावली थिक। मिथिलामे ई गृहस्थक लेल महत्त्वपूर्ण अछि। आई जखनि बहुत मैथिल बन्धु बाहर रहैत छथि, बहुतो गोटे परम्परा सँ अनभिज्ञ छथि तखनि हुनका लोकनिक लेल एतए हम मिथिलाक परम्पराक उल्लेख करैत छी। परदेसमे एकर निर्वाह तँ कठिन अछि मुदा जानकारी अधलाह नहिं। बहुत विधि छैक जे कएल जा सकैत अछि।
मिथिलामे दीपावली कें सुखराती कहल जाईत अछि। सन्ध्याकाल गोसाउनिक पूजा कए दुआरि पर अरिपन दए चौखटि पर दीप जराओल जाइछ। दुआरिक वामाकात उनटल उखरि पर सूपमें पानक पात आ धान राखल जाइत अछि। पुरुष गण ऊक हाथ में लए दुआरि पर आबि ओ धान तीन बेर घरक भीतर छीटैत छथि आ कहैत छथिन :-
धन-धान्य लए लक्ष्मी घर जाउ, दारिद्र्य बहार होउ।'

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Friday, October 29, 2010

एक अलौकिक अनुभव

एक अलौकिक अनुभव।

मैँ महावीर मन्दिर, पटना में प्रकाशन प्रभारी हूँ। यहाँ की पत्रिका 'धर्मायण' में आचार्य पृथ्वीधर कृत चण्डीस्तोत्र देने की
प्रबल इच्छा हुई। चूँकि यह हिन्दी पत्रिका है इसलिए उन 16 श्लोकों का अनुवाद आवश्यक था। मैं अनुवाद करने लगा। दूसरा ही श्लोक था :
यद्वारुणात्परमिदं जगदम्ब यत्ते बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम्।
यहाँ आकर अटक गया। मैं प्रथम शब्द में सन्धिविच्छेद करता था यत्+वारुणात् परं । वरुण को राजा कहा गया है। उस वरुण के राज्य से भी आगे का स्थान देवी का है यह अर्थ निकलता था। लेकिन आगे 'दहनाधिरूढ़म्' से संगति नहीं बैठती थी। मैं परेशान हो गया। कोई प्राचीन व्याख्या नहीं मिली। अन्त में उस श्लोक को छोड़कर आगे बढ़ गया। पत्रिका का पूरा कार्य हो गया, केवल एक श्लोक के अनुवाद के लिए छपने में विलम्ब हो रहा था। मैं समस्या में पड़ गया। पटना में संस्कृत के एक भारत विख्यात विद्वान् के सामने उसे रखा तो उनसे संस्कृत शिक्षा के प्रति सरकार के रबैया पर कुछ भाषण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला।
हमेशा उसी की चिन्ता सताने लगी। लगभग एक सप्ताह के बाद रात में मैँने स्वप्न देखा। आकाश में वह श्लोक लिखा हुआ चमक रहा था। थोड़ी देर के बाद पहला शब्द 'यद्वारुणात्परमिदम्' 'यत् वा अरुणात्' के रूप मेँ बिखर गया। फिर 'अरुणात्' गायब हो गया और उसकी जगह 'ह' चमकने लगा। मुझे संकेत मिल चुका था। मैं उठा और सुबह की प्रतीक्षा किए विना मैंने अनुवाद कर लिया। सम्पूर्ण श्लोक सांकेतिक भाषा में देवी के बीजमन्त्र का उल्लेख कर रहा था। इस स्वप्न को मैं आजतक भूला नहीं हूँ।

मैं जानता था कि तन्त्रशास्त्र में अरुण शब्द का प्रयोग 'ह' अक्षर के लिए होता है लेकिन ऐसा सन्धिविच्छेद! मैंने कभी नहीं सोचा था! वह आकाश में श्लोक का चमकना फिर शब्दों का अलग होना! क्या था? आज भी मैं सिहर जाता हूँ।

Thursday, October 28, 2010

प्राचीन काल में शूद्रों की नि:शुल्क शिक्षा।

आज की राजनीति में सब कुछ सम्भव है। किसी ने कहा कि कौआ कान ले गया तो बस कौआ के पीछे दौड़ पड़े! जो लोग कहते हैँ कि प्राचीन भारत में शूद्रों को पढ़ने नहीँ दिया जाता था वे इस अंश को देखें :- आपस्तम्ब धर्मसूत्र में एक प्रसंग की विवेचना है कि शूद्रों से आचार्य शिक्षण शुल्क लें या न लें। आपस्तम्ब ने किसी आचार्य का मत दिया है कि 'शूद्र और उग्र से भी शुल्क लेना धर्म-सम्मत है।' सर्वदा शूद्रत उग्रतो वाचार्यार्थस्याहरणं धार्म्यमित्येके। (1 । 2 । 19) लेकिन आपस्तम्ब का मत है कि न लें। यानी निःशुल्क शिक्षा दें। अब कोई बतलायें कि यदि शूद्र को कोई पढ़ाते ही नहीं थे तो यह विवेचना ही क्यों? इस विवेचना का ही अर्थ है कि गुरुकुल में शूद्रों को भी पढ़ाया जाता था।

‎'डाक' का जन्मस्थान कहाँ था?

महान् ज्योतिषशास्त्री डाक मिथिला के थे। कुछ लोग उन्हें बंगाली सिद्ध करने में लगे हुए हैं तो कुछ घाघ के रूप में अवध क्षेत्र का मानते हैं। कुछ लोग भडरी के साथ जोड़कर राजस्थान को उनका जन्मस्थान मानते हैं।
म. म. हरपति के 'व्यवहार प्रदीप' मे डाक का एक वचन है जिसमे 12 राशियों का उदयमान दिया गया है। वह 6 अंगुल पलभा का उदयमान है। पलभा का सीधा सम्बन्ध अक्षांश से होता है। मिथिला की पलभा 6अंगुल है। इस गणित के प्रमाण से डाक मिथिला के सिद्ध होते हैं।
सभी मैथिल बन्धुओं से निवेदन है कि जहाँ जहाँ NET पर उन्हें अन्य स्थानीय माना गया है उसका खण्डन करें और डाक को मिथिला विभूति के रूप में प्रतिष्ठित करें। मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूँ।

Tuesday, October 26, 2010

Ramanandacharya the founder of 'Ramavat' cult was Saint Kabir's Guru.

अनन्तदास की 'कबीर परिचई'

कासी बसै जुलाहा ऐक। हरि भगतन की पकडी टेक॥
बहुत दिन साकत मैं गईया। अब हरि का गुण ले निरबहीया॥१॥
बिधनां बांणी बोलै यूं। बैषनौं बिनां न दरसण द्यूं॥
जे तूं माला तिलक बणांवै। तोर हमारा दरसण पावै॥२॥
मुसलमांन हमारी जाती। माला पांऊं कैसी भांती॥
भीतौ बांणी बोल्या ऐह। रांमांनंद पै दछ्‌या लेह॥३॥
रांमांनंद न दैषै मोही। कैसैं दछ्‌या पांऊं सोई॥
राति बसौ गैला मैं जाई। सेवग सहत वै निकसैं आई॥४॥
राति बस्यौ गैला मैं जाई। रांम कह्या अरु भेट्‌या पाई॥
जन कै हिरदै बढ्‌या उछावा। कबीर अपनैं घरि उठि आवा॥५॥
माला लीन्ही तिलक बणाया। कबीर करै संतन का भाया।
लोकजात्रा दरसण आवै। दास कबीर राम गुण गावै॥६॥
कुटंब सजन समधी मिल रोवैं। बिकल भयौ काहे घर षोवै॥
मका मदीना हमारा साजा। कलमां रोजा और निवाजा॥७॥
तब कबीर कै लागी झाला। माथै तिलक गुदी परि माला॥
रे कबीर तूं किन भरमाया। यह षांषंड कहां तैं ल्याया॥८॥
अपनी राह चल्यां गति होई। हींदू तुरक बूझि लै दोई॥
अचंभा भया सकल संसारा। रांमांनंद लग ई पुकारा॥९॥
मुसलमांन जुलाहा ऐक। हरि भगतन का परड्ढा भेष॥
किरषि करै उन हूं कूं देई। बूझ्‌यां नांव तुम्हारा लेई॥१०॥
तब रांमांनंद तुरत बुलाया। आगैं पीछैं परदा द्याया॥
रे कहि माला कब दीनी तोही। अब तूं नांव हमारा लेई॥११॥
हम राति बैसे गैला मैं जाई। सेवग सहत तुम निकसे आई॥
रांम कह्यां अरु पाऊ। हमैं कह्या अरु तुमहैं कहाऊ॥१२॥
तब हूं अपनैं घरि उठि आया। आंनंद मगन प्रेम रस पाया॥
रे यूं तौ रांम कहै सब कोई। ऐसी भांति न हरिजन होइ॥१३॥
गुर गोबिंद कृपा जौ होई। सतगुर मिलै न मुसकल कोई॥
सब आसांन सहज मैं होई। ऐसैं साध् कहैं सब कोई॥१४॥
परगट दरसन द्यौ गुसांई। नही देहौ तो मरिहूं कलपाई॥
नृमल भगति कबीर की चीन्हीं। परदा षोल्या दिछा दीन्हीं॥१५॥
भाग बडे रांमांनंद गुर पाया। जांमन मरन का भरम गमाया॥१६॥
रांमांनंद गुर पाईया, चीन्ह्यं ब्रह्म गियांन।
उपजी भगति कबीर कै, पाया पद नृबांन॥
रांमांनंद कौ सिष है, कबीर ता कौ संत।
भगति दिढांवण औतर्यौ, गावै दास अनंत॥

What are the features of religion?

धर्म किसे कहते हैं ?

धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति
धर्मेण पापमदनुपति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्‌ धर्मं परमं वदन्ति।
-तैत्तिरीय-आरण्यक १०/६३
सम्पूर्ण विश्व का आधार धर्म ही है। लोग संसार में कल्याण के लिए धर्मिक व्यक्ति के पास जाते हैं। धर्म से पाप का क्षय होता है। धर्म में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। इसलिए धर्म को सबसे बड़ा कहा गया है।

धर्मार्थकामाः किल जीवलोके समीक्षिताधर्मफलोदयेषु।
ये तत्र सर्वे स्युरसंशयं मे भार्येव, वश्याभिसता सपुत्रा ॥
-वाल्मीकिरामायण २/२१/५६
इस जीव-जगत में धर्म-पफल की प्राप्ति के अवसरों पर धर्म-अर्थ-काम ये सब निस्सन्देह जहाँ धर्म है वहाँ अवश्य प्राप्त होते हैं, जैसे पुत्रावती भार्या पति के अनुकूल रहकर सहायक होती है।

अनर्थेभ्यो न शक्नोति त्रातुं धर्मो निरर्थकः । -वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड ८३/१४
जो धर्म मानव की अनर्थों से रक्षा नहीं कर सकता, वह धर्म निरर्थक है।

अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोयं सार्ववर्णिकः ॥
-श्रीमद्‌भागवत ११/१७/२१
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अकाम, अक्रोध, अलोभ तथा सभी प्राणियों के प्रति हित की भावना- ये सभी वर्णों के धर्म हैं।

न धर्मफलमाप्नोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति।
यश्चैनं शंकते कृत्वा नास्तिक्यात्‌ पापचेतनः ॥

जो पाप से सशंक होकर धर्म करता है, उसे दुहना चाहता है, वह धर्मफल को प्राप्त नहीं कर सकता है।
-महाभारत वनपर्व ३१/६
न तत्परस्य संदध्यात्‌ प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात्‌ कामादन्यः प्रवर्तते ॥
-महाभारत उद्योगपर्व ३९/७२
जो अपने लिए प्रतिकूल हो वह दूसरे के लिए भी नहीं करना चाहिए, संक्षेपतः यही र्ध्म है।

अहिंसा सूनृता वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा।
वर्णिनां लिंगिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते।
-अग्निपुराण २३७/१० एवं कामन्दकीय नीतिसार २/३२
अहिंसा, मधुर वाणी, सत्य, शौच, दया और क्षमा संन्यासी तथा सामान्य व्यक्ति सभी के लिए सामान्य धर्म है।

Monday, October 25, 2010

स्वामी रामानन्दाचार्य ने मध्यकाल में समाज के बीच फैले भेद-भाव को मिटाने के लिए घोषणा की :- "जात पाँत पूछे नहि कोई हरि कौ भजै सो हरि सम होई"। उनके 12 प्रधान शिष्य हुए, जिनमेँ कबीर एवं रैदास मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन के स्तम्भ हैं। ऐसे स्वामी रामानन्दाचार्य ने श्रीराम की प्रार्थना करते हुए कहा " सुरासुरेन्द्रादिमनोमधुव्रतैर्निषेव्यमाणाङ्घ्रिसरोरुह प्रभो। असंख्यकल्याणगुणामृतोदधे सुरेश रामाद्भुतवीर्य मापते।" सामाजिक समता के वाहक रामान्दाचार्य के आराध्य श्रीराम हैं।

Saturday, October 23, 2010

सनातन धर्म मे श्रेष्ठता की चार कसौटी है: उम्र, विद्या,यश एवं बल। इन चारों मे से एक में भी आगे रहने पर वह व्यक्ति वंदनीय होता है। बौद्ध धर्म में श्रेष्ठता की कसौटी है:- प्रज्ञा, गुण,जाति एवं उम्र " तत्थ पञ्ञावुड्ढो गुणवुड्ढो जातिवुड्ढो वयोवुड्ढो ति चत्तारो वुड्ढा।" (सुत्तनिपात-अट्ठकथा : किंसीलसुत्तवण्णना) इसी जगह कहा गया है: "तथा दहरो पि राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो ब्राह्मणो वा सेसजनस्स वन्दनारहतो जातिवुड्ढो नाम।" यानी, छोटा भी यदि राजा क्षत्रिय है और उसका राजतिलक हुआ है या वह ब्राह्मण है तो शेष लोगों के लिए पूजनीय है इसे जाति की श्रेष्ठता कहते हैं।जो लोग सनातन धर्म पर कीचड़ उछालकर बौद्ध बनने जा रहे होँ उन्हें यह संदेश समर्पित...

Monday, October 18, 2010

बसहा बैल

बसहा बैल

दो हट्टे-कट्टे बैल जुते हैं एक गाड़ी में/
गाड़ी पर भी एक बैल ही बैठा/
मस्त मस्त पागुर करता हुआ/
आगे मे धूप-दीप/
सजी है थाल कोमल कोमल दूर्वा से/
बज रहे बाजे/
'जय जय भोले शंकर'/
थाल मे बरसते पैसे, केले, लड्डू, /
गेरुआ धारी दाढ़ीवाले की चमकती आँखें/
जुते बैल की भूखी-प्यासी ऐंठती जीह/
छिला हुआ कंधा/
देखने ठिठक जाता हूँ/
फिर दिखाई देता है एक कूबर उठा हुआ/
गाड़ी में बैठे बैल की गरदन पर/
फूलमाला से सजा हुआ/
तभी बैलोँ पर एक डंडा चल जाता है/
बैल चुपचाप चल पड़ते हैं/
'जय भोलेनाथ'

Thursday, October 14, 2010

THE BIRTH-SONG "Sohar" in Mithila

बच्चाक जन्मक अवसर पर मिथिला में सोहर गीत गाओल जाइत अछि। 'सोहर' शब्दक मूल संस्कृत 'शोकहर' अर्थात् प्रसव-पीडा के मेटओनिहार थिक। एहि गीत सभमें बच्चाक जन्मके देवी-देवताक सँ जोड़ल जाइत अछि। मध्यकालमेँ जखनि निरगुनियाँ सन्त मानव-जन्मकेँ शोकक कारण मानि संन्यास के महिमा-मण्डित करए लगलाह तखनि मिथिला मेँ विवाह आ बच्चाक जन्मकेँ पावन अवसर मानल गेल। 'सोहर' शब्दमे जे ई दार्शनिक भाव अछि से 'बधैया' मेँ नहि अछि।बधैयामे चारण आ भाँटक संस्कृतिक भावना अछि। मिथिलामे ई पमरियाक परम्परा पृथक् अछि। मिथिलाक संस्कृति बेटीक जन्मके 'भगवतीक आगमन' मानैत अछि आ बेटाक जन्मके कृष्ण आ रामक अवतार। बच्चाक माय एतए देवकी, यशोदा आ कौशल्याक रूपमे पूजित होइत छथि।

Wednesday, October 13, 2010




ये कहाँ के यात्री हैं?

मैं पटना रेलवे स्टेशन पर लगभग दो घंटे से खड़ा था. जिस ट्रेन से मुझे जाना था वह पिछले स्टेशन पर ही रोक दी गयी थी. मैंने सीढियों के नीचे अस्वेस्तेस पर कुछ बच्चों को देखा. सबकी उम्र १०-१२ वर्ष रही होगी. सब कपडे को मुट्ठी में भरकर उसे चूस रहे थे. मुझे अचरज लगा.
थोड़ी देर के बाद एक और लड़का आया. उसकी उम्र लगभग २०-२२ रही होगी. उसके आते ही सभी लेटे हुए बच्चे बैठ गए और कुछ कहने लगे. उस लडके ने उन्हें डांटा और अपनी जेब से एक सीसी निकालकर उन्हें थमा दी. जिस कपडे को वे लडके चूस रहे थे उस कपडे को खोलकर सीसी में से थोड़ी सी दवा कपड़े पर डालकर फिर वैसे ही चूसने लगे. वह लड़का फिर चला गया.
सभी छोटे लडके थोड़ी ही देर में सो गए. एक लडके के हाथ में सीसी रह गयी, जिसे मैंने गौर से देखा. मैं उपर ओवरब्रिज पर था. काफी दूरी थी इसलिए उस दवा का नाम मैं नहीं पढ़ सका. जिस तरह whitener की सीसी होती है वैसी ही सीसी थी और अन्दर की दवा भी ठीक वैसी ही थी. लेकिन वह whitener नही थी. कागज पर काले अक्षर में लिखा हुआ था लेकिन दवा का नाम लाल अक्षरों में था. क्या था वह? वह नशीली दवा तो थी ही!
सभी १०-१२ साल के मासूम बच्चे सोये हुए थे या बेहोश थे कौन जाने? नीचे प्लेटफार्म पर यात्री आ-जा रहे थे. मेरी ट्रेन भी अब आनेवाली थी. मेरे बगल में मेरा भी १०-१२ साल का बेटा था. मैंने उसे पकड़ लिया. शायद कुछ झकझोडकर. मेरे हाथों में एक व्यग्रता थी. मन में तूफ़ान-सा था. मेरे बेटे ने शायद समझा हो कि ट्रेन आ जाने के कारण मैंने उसे इस तरह झकझोड़ दिया है.
मैं ट्रेन में बैठ गया. सोचता हूँ कि सब बैठ गए होंगे. पर वे लडके? उन्हें कहाँ जाना था???

Monday, October 4, 2010

A Hindi poetry by Bhavanath Jha

तनहाई

वह कैसी तनहाई!
दुनिया की नजर में जश्ऩ मेँ डूबा हो कोई!
साथी को कंधे पर ढोता हुआ फूलोँ-भरी वादियोँ सैर करे!
तन्हा नहीँ है वह?
सिर्फ अहसास होता है दूसरे के वजूद का,
जब कंधे का घट्ठा कभी कभी दर्द देने लग जाता हो!

यह कैसी तन्हाई!/
घने जंगल में साथ चलते चलते/
सारे साथी अपनी अपनी राह पकड़ लेते हैं/
कोई नहीं कह सकता कि कौन भटक गया है/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है/
वरना अपनी राह पर भी /
वही चिड़ियों का चहचहाना, हवा का सरपट दौड़ना.../
सब कुछ काफी है तन्हाई तोड़ने के लिए/
हवा, पानी, सूरज, चाँद, तारे, /
फूलोँ भरी झूमती डालें/
लोरी से मार्शिया तक गाती चिड़ियाँ /
कलकल जल से मुखरित झरने/
तन्हाई तोड़ते हैं/
मैं अकेला नहीं होता हूँ/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है॥

A Maithily poem by Bhavanath Jha

सिँहार झरैत नहि अछि/

सिँहार झरैत नहि अछि/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले'/
भोर होइतहि/
ओ गुलाब नहि थिक जे तोड़निहारक हाथ/
रक्त-रंजित करत/
ओ गुलमोहर नहि थिक /
जकरा कारणे गाछक डारिए टुटत/
ओ निर्लज्ज, भ्रमरसेवी, पीतरस कमल नहि थिक /
जे रौद भेलो पर हँसैत अछि/
सिँहार तँ कली सँ फूल बनितहि झटकि के ओ चलि पड़ै-ए/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले' /
समर्पण, पूर्ण समर्पण/
देवता के प्रसन्न कए /
संसारक सुखक कामना सँ/
सिँहार झरैतनहि अछि/
भोर होएबा सँपहिनहि/
प्रयाण करैत अछि संसार ले'॥

Thursday, September 23, 2010

A story from Mithila in Maithili language


घुरि आउ कमला


भवनाथ झा
हटाढ रुपौली
झंझारपुर, मधुबनी

एक नगरमे एक राजा रहथि, हुनक यश दूर-दूर धरि पसरल छलनि। से सूनि कए आन-आन नगरसँ लोक सभ आबि ओतए बसए लागल। राजाक आमदनी बढ़ल गेलनि। ओ पहिनेसँ आर बेसी भोग-विलासमे लागि गेलाह। नवघरिया सभक द्वारा अपन-अपन नगरसँ आनल वस्तुजात सभक उपभोग बढैत गेलनि। पछिमाहा दारू आ दछिनाहा बुलकीवाली सभक चसक लागि गेलनि। आब ओ की तँ शिकार खेलाथि, नहि तँ अन्नरक कोठामे जमल-रमल रहथि। राज-काजक सभटा भार देवानजी पर छलनि। ओ बड़ बुधियार रहथि आ मुँहगर लोकसभ सुखी सम्पन्न छल तें नीक जकाँ दिन बितल जाइत रहनि।


मुदा, एक बेर राजमे रौदी भेल। इनार पोखरि सभ सुखा गेलै। पुक्खो रुक्खे चल गेलै; लोक अन्न पानि बेतरेक मरए लागल। राजाकें चाँकि भेलनि। एहि आफदमे लोकक रक्षा लेल पोखरि खुनबए लागलाह। राजाक बखारी खुजल। तिनसाला बासमती चाउर, जन कें बोनि भेटए लगलैक। अन्न तँ भेटलै मुदा पानि लेल लोक बेलल्ले रहल। दू चारि रजकूप टा टेक धएने छलैक। बाँकी सभमे चट्टा पड़ि गेल रहैक। माल-जाल सभ किछु दिन पोखरिक घोर मठार पानि पीलक मुदा बादमे ओहो सुखाए गेलै। चमरखल्ली गन्हाए लागल।

लोक सभकें आस लागल रहै जे पोखरि खुनाएत तँ पानिक सोह फुटतैक। मुदा से नहि भए रहल छलैक। सोह तँ दूर, गिलगर माँटियो नै अभरि रहल छलैक। राजा सभ दिन साँझके अपनहि जा कए देखथि आ निरास भए घूरि जाथि। लोक सभ बाजए लागल जे कमला माइक कोनो अनठ भेलनि तें रूसि रहलीह। 
राजाक आढ़ति भेल। सभठाम कमला माइक पूजा हुअए लागल। पाठी कबुला कएल गेल। आन-आन नगर सँ भाँति-भाँतिक धामि सभ बजाओल गेलाह। केओ धानक जुट्टी, तँ केओ डाला भरि पान आ डाला भरि मखान चढओलनि, मुदा कोनो फल नहि। एक गोटे कहलनि जे कमला माइक सुखाएल धारमे सोनाक माछ गाड़ल जाए।' ई सुनितहि रानी झट दए अपन खोपासँ माछ निकालि धामिक आगाँ राखि देलनि। एहि टोनापर सभक विश्वास रहैक। जन सभ रातिमे सपना देखए लागल जे कोदारिक छओ लगितहि पानिक तेहन बमकोला छुटलै जे सभ कोदारि छोड़ि-छाड़ि भागि रहल अछि, जेना धरती फाटि गेल होइक। लोकक भरोस बढ़ल गेलै। दिन बेरागन देखि कए नगरक पुबरिया धारमे एक हाथ गँहीर, एक हाथ नाम आ एक हाथ चाकर खाधि खूनल गेल। ओहिमे राजा अपनहि हाथें माछ गाडलनि। दोसर दिन जन सभ दुन्ना जोश सँ माँटि कोड़ए लागल, मुदा सभ व्यर्थ। पोखरि एक बाँस गँहीर भए गेल रहैक, तैयो माटि ठक-ठक करै। राजा बड़ चिन्तित भेलाह। रातुक निन्न बिलाए गेलनि। कने काल लेल आँखि लागियो जाइन तँ तेहन ने' सपना देखए लागथि जे चेहा कए उठि जाथि।

एही हालमे एक राति राजा सपनामे सुनलनि जे केओ स्त्री हिचुकि-हिचुकि कए कानि रहल अछि। राजा चेहा कए उठलाह। सपना सत्त बुझएलनि। भेलनि जे रानी कनैत छथि। मुदा नहि, रानी सूतलि रहथि। तखनि राजाकें छगुन्ता लगलनि। एक बेर इच्छा भेलनि जे रानीकें उठाए दियनि, मुदा फेर सोचलनि जे इहो तँ कइएक राति सँ जगरने कए रहल छथि, तें जँ निन्न भेल छनि तँ थोड़ेक काल सुतए दैत छियनि। राजा उठलाह। चारूकात अकानलनि। कानब बंद भए गेल रहैक। जखनि कोनो भाँज नहि लगलनि तँ फेर सूति रहलाह। थोड़ेक कालमे फेर कानब सुनलनि। एहिना, जहाँ ने राजाकें आँखि लागनि कि कानब सुनथि। उठि कए बैसथि की ओ आवाज बिला जाइ। राजा चिन्तित भेलाह। भिनसरे धामि सभकें बजाए कहलथिन। ओ लोकनि टोना-टापरमे लागि गेलाह। कते कँटैल, बङौर आ मरिचाइ आगिमे झोंकल गेल, तकर ठेकान नहि। मुदा सभ व्यर्थ।

एहिना कतोक दिन बीति गेल। एक राति राजाकें बुझएलनि जे हुनकर पलङरी लग एकटा स्त्री ठाढ़ि अछि। ओकर एक हाथमे धानक जुट्टी छैक आ दोसरमे भेटक फूल। लाल रङक पटोर पहिरने अछि आ गरदनिमे मखानक फोंकाक माला लटकल छैक। ओएह हिचुकि हिचुकि कानि रहल अछि।
राजा पुछलखिन- अहाँ के छी? किए कनै छी।” 
ओ बजलीह- बाउ! हम अहाँक गोसाउनि थिकहुँ। हमर सखी कमला तमसाए पताल लोक चल गेल छथि। हमरा एसकर मोन नै लगैए तें कोंढ फाटि जाइ-ए।
राजा दुनू हाथ जोड़ि हुनका प्रणाम कएल आ पुछल- हे माय, कमला माइ किए तमसाएल छथि?”
अहींक किरदानी सँ'- बजलीह गोसाउनि।
हमरासँ कोन अपराध भेलनि, हे माय!राजा अकचकाइन पुछलथिन।
एहि पर गोसाउनि तमसाए कहल- सभटा हमरहि मुँहे सुनब? जाउ धारक कछेरमे सिमरक गाछक तर निशाभाग रातिमे एक गोटे भेटत ओ एड़ी सँ टिकासन धरि बुझाए देत। ई कहि गोसाउनि जाए लगलीह। राजा हुनक पयर पकड़बा लेल धड़फड़एलाह कि निम्न टूटि गेलनि।
राजा उठि कए बैसि गेलाह। सपनाक सभटा गप्प मोनमे घुरिआए लगलनि। रातुक एगारह बाजल रहैक। ओही राति सपना परतएबा लेल तरुआरि कसि लेलनि। तौनीसँ अपन सौंसे देह झाँपि साधारण लोकक बाना बनाए लेलनि। अनका केकरो नहि संग कए एसकरे कमलाक कछेर दिस विदा भेलाह। हवेलीक पछबारी कात छहरदेबारी टूटल रहैक। ओही देने चोर जकाँ हाता सँ बाहर भए गेलाह।

बाहर सौसे भकोभन्न रहैक। ककरो चाल-भजार नहि पाबि निश्चिन्त भए धारक कछेर पहुँचलाह। ओतए एकटा सिमरक गाछ छल। लोक कहल करए जे जहिया कमला माइ एतए बहए लगलीह, ओही दिन सँ ई गाछ अछि। ओकर जड़ि ततेक मोट भए गेल रहय जे चारि गोटे जँ हथ्थाजोडी कए पँजियाबए, तखनि पओतैक। राजा सिमरक गाछ अंदाजि कए ओतए जएबाक बाट धएलनि। अन्हारमे देखलखिन नहि, ओतए अमती काँटक एकटा झाँङरमे ओझराए गेलाह। तौनी एक दिससँ छोड़ाबथि तँ दोसर काँटमे बझि जाइन। एही प्रयासमे लागल रहथि कि तावत कोनो पैघ चिड़ै पाँखि फड़फड़ओलक आ बुझएलनि जेना सिम्मरक गाछपर सँ केओ अथाह पानिमे छप्पसँ कूदल होअए। धार सुखाएल छलै से हिनका बुझले छलनि तें आदंकसँ सर्द भए गेलाह। एम्हर काँट छुटबे नै कएलनि। गिदरक झुंड सेहो फकसियारी काटए लागल। अंतमे राजा ओहि तौनीकें काँटेपर छोडि अपने मुक्त भए गेलाह। ओ सिमरक गाछ लगीचेमे रहैक तें घेंघिआइते जकाँ सोर कएलनि- सिमरक गाछ तर केओ छह हओ।राजाक ई कहितहि एकटा बाझ हिनका दिस झपटल, मुदा माथक ठीक उपर देने दोसर दिस चल गेल। राजा तिलमिलाए गोलाह। पयर थरथराए लगलनि। एतबामे सिमरक गाछ परसँ केओ ठहक्का मारलक आ गरजए लागल- आबि गेलह तों। आबहि पड़लौक ने।
राजाकें बुझएलनि जेना केओ डेन पकडि कए घीचि रहल अछि। गाछक जडि मे पहुँचलाह। ओतए एकटा खोपडि छल, जकर मुँहथरिपर एक घैल पानि राखल छलै। खोपडिक भीतर एकटा डिबिया जरि रहल छलै। राजा निहुरि कए देखलनि तँ ओतए केओ नहि रहय। ओ बुझलनि जे जकरा मादे गोसाउनि कहलनि से कतहु गेल अछि। थोडेक कालमे घूरि कए आबि जाएत तखनि ओकरा सँ गप्प करब। राजा ओही खोपडिमे जा कए बैसि गेलाह।

सिमरक गाछ परसँ फेर केओ हँसल। राजा ओहि दिस अकानलनि तँ नजरि गेलनि ओकर एकटा डारि पर, जतए मनुक्खक कंकाल उनटा लटकल छल। ओकर दुनू टा पयर एकटा डारिमे बान्हल रहैक। ओएह हँसि रहल छल।
-के थिकाह तों, किएक हँसि रहल छह?” -पुछलखिन राजा। राजा डेराए गेल रहथि, तैयो अपन कुलदेवीक मंत्र जपैत साहस कएने रहथि।
ओ परेत बाजल- दू टा बात एके बेर पुछैत छह मूरख! पहिने एकटाक उत्तर सुनह। तखनि दोसरक उत्तर कहबहु।
ओ परेत एक बेर बपहारि कटलक आ बाजल-
हे राजा, अहाँक पाँचम पुरखाक समयक गप्प थिक। हमर जन्म एकटा मलाहक घरमे भेल रहय। हमर बाबा बड़ कलामी रहथि। एक बेर जाल घुमाबथि तँ एक कट्ठा भरि छापि लेथि। एक डूबमे एक धूर मखान बहारि लेथि। आब अछि केओ एहन। केओ नहि; केओ नहि। हमर बापो तेहने। चौरी-चाँचरक कमी नै रहै। सभतरि पानिए पानि। उपरमे ओइरी धान आ तरमे खलबल करैत सिंगी, माँगुर आ कबै माछ। हमरा माछे भात खाइत मोंछक पमही भेल।
ओही गामक दोसर टोलमे एकटा छौड़ी रहै। नाँओ रहै- फुलिया। ओकरा अपन गाममे केओ नै रहै, तें अपन बहिन-बहिनोए लग आबि गेल रहए। ओकरहु चढंतिए छलै। लोक सभ झुट्ठे कहै जे फुलियाक देह इछाइन मँहकै छै। भेटक ढ़ेरही तोड़ैत काल जखनि ओ डाँड भरि पानिमे चुभकैत हमर लगीच आबए तँ बुझाए जे सौंसे चौरी भेट फुला गेलै-ए। हमहूँ ताकि हेरिकए दू चारि भेटक माला बनाए ओकरा पहिराबए लगियैक कि ओ लाल होइत गाल छिपबैत भागि जाए।'

राजा बिच्चहिमे टोकि देलनि- फुलियाक खिस्सा सुनाबए लगलह। ई ने कहह जे तों के थिकह?”
परेत हँसल- सत्ते मूरख छह। हओ फुलियाक बिना की हमरा चीन्हि सकबह। सुनह चुपचाप।
परेत फेर कहए लागल- गाममे फुलिया आ हमर बात सभ केओ बूझि गेल रहए। ओकर बहिन सेहो सुनलक। गप्प चललै। फुलिया सँ हमर बियाह भए गेल। ओही साल कमला माइ सेहो किरपा कएलखिन। एही गाम देने बहए लगलीह। खूब धानो उपजै। माछ मखान भेट, सिंघार, करहर, सारूख ई सभ तँ अलेल रहै। केओ पुछनिहार नहि। ओहीसँ लोकक गुजर चलै। जोलहा के एक पसेरी भेटक चाउर आ दू-चारि दिन माँछ दए अबियैक तँ एक जोड़ी सलगा बीनि दिअए। बोचा मियाँक सलगा नामी रहै परोपट्टामे। मजगुत तेहेन जे एक जोड़ीमे साल भरि निचेन। धारक ओइ पारमे अखनि जतए तोहर नरै कलमबाग छह, ओतहि सरपतक बोन रहै। ओकरे टाटी-फड़की बिनल जाइ। सभ अपन-अपन काज करए; दिन हँसी खुशी बितल जाइ।
राजा बड़ नीक लोक रहथि। नीक लोक की बूझू जे सुधंग रहथि। लोक सभ कहै जे राजा कें आँखि छन्हिए नै, काने टा छनि। सोझाँमे कतबो लए लिएक तँ हँसी-खुशी दए दैत रहथिन। मुदा परोच्छमे नहियो लिऐक आ केओ झुट्ठे कहि सुनाबनि तँ बुझू जे ओकरा पर अट्ठाबज्जर खसि पड़ै। राजा रहथि कने जीहक पातर। माँगुर माछ जरे अँगूरक दारू खूब नीक लगनि। हम सभ पारी लगा कए बिछलहा मांगुर हवेली दए अबियै। दारू टा बाहर सँ अबै। ओकर बदलामे राजा एतएसँ मखानक लाबा पठाबथि।

हमर बियाहक तीन बरखक बाद हमर बापो मरि गेलै। तेहेन ने सिंगी बिन्हलकै जे दू दिन जर-धाह भेलै आ तकर परात मरि गेलै। सिंगीक जहरक मादे बुझले हएतह। कहाँदन एक बेर अजोध गहुमन अपन बिक्ख खरहीक झाँखुड़मे नेराए चराउर करै लेल गेल। ओम्हरसँ सिंगी आबि सभटा खाए गेलै। गहुमन जे घुरल तँ जहर नै भेटलै, तँ ओ आन्हर भए गेल आ अन्हइ बनि गेल। सिंगीक जहर हमर बाप ले तँ सते गहुमनेक जहर भए गेले। ओकरे फिरिया करम लेल बोचा मियाँक ओतए कप्पा लेल समाद पठओलियै तँ घरमे बीनल नै रहै। तखनि ओएह कहलकै जे राजाक हवेली पर एकटा पइकार अएलैए। रंग-बिरंग के कपड़ा-लत्ता बेचै छै। कपड़ा सभ बड पातर छै आ चिक्कन तेहन जेना पुरैनिक पात होइ।' हमरा सभ लग नकदी रुपैया कतए सँ पाबी। से माइक गराक हँसुली कटबन्हकी लगाए ओतहिसँ धोती मङओलियै। ओही बरख पच्छिमसँ आरो बहुत रास पइकार अएलै। भाँति-भाँतिके जिनिस सभ लए कए। राजाकें अनदेसी चीजसँ लोभाकए पोटि लेअए आ एही नगरमे बसल जाए। पइकारी खूब चलै। लोक सभ सेहो अनदेसी जिनिसमे परकि गेल रहए। आब बोचा मियाँक कपड़ा केओ नै पुछै। सभ नकदी रुपैया हथियबै लेल अपसियाँत रहए लागल। राजाक संगे हुनकर देबान आ आरो हसबखाह सभ ओहने भए गेल। आस्ते आस्ते ओ पइकार सभ जमैत गेल। बादमे तँ अपनै नियम-कानून चलाबए लागल। तखनि राजाकें चाँकि भेलनि। ताबत तँ समय बीति गेल रहै। पइकार सभ गोलैसी कए नेने रहय। ओकर मेंटसँ राजाकें लडाइ भेलनि। मुदा राजा हारि कए जान बचबै लेल रानीकें संग लए कतौ भागि पड़एलाह। ओएह पछिमाहा गादी पर बैसल।
अपन घरमे हम तिनिए गोटे रही माए, हम आ फुलिया। हम मखानक तैयारी सुरू कएने रही। ओहिसँ नगदी रुपया आबए लागल रहए। ई राजा भेल तँ ओ मखानक दाम घटाए देलकै। अपन-अपन पहिलुका नगरक पइकारक हाथें पानिक मोल बेचि दै आ अपने जे जिनिस बेचए से आगिक मोल। सभक हाल खराप होइत गेलै।

ओहि राजाकें कथुक विचार नै छलै। हम सभ कमला माइक अरधना करी तँ चौल करए। कहै जे पहाड़ पर जे बरखा होइ छै आ बरफ गलै छै, सएह उपरसँ नीचाँ खँघरै छै, ओकरा नदी कहल जाइ छै। ओहीमेसँ एकटाके नाँओ छियै कमला। ओकर पूजा कए की है तै? ई पूजा-पाठ सभ काहिल आ अमरुखके चलाओल छियै। आर की की ने कुचरए कमला माइक मादे। ओकर देखादेखी अपनहु नगरक धनिकहा सभ हँ मे हँ मिलाबए- खरखाही लूटए। हम सभ की करितहुँ। राजा रहए। केओ किछु नाकर-नुकर बाजए तँ भकसी झोंकाए मरबाए दै।
एम्हर लोकक ई हालति भए गेलै जे पाँचो आङुर मुँहमे जाएपर अट्ठाबज्जर। साँझक साँझ उपास पड़ए लागल। राजाक दिस सँ चौरी-चाँचर बन्दोबस्त हुअए लगलै। जकरा डाक बाजि कए पइकार सभ खरीदए आ ओहिमे बोनिपर हम सब खटी। अपन धंधा सभ चौपट्ट भए गेल। हमर माए, जे सेरक सेर भेटक चाउर हँसैत बिलहि लै छल, तकरा मरबा बेरमे पाओ भरि खोंछिमे नै दए सकलियै।
एतबा कहि ओ परेत थोड़ेक काल चुप्प भए गेल, आ हिचुकि-हिचुकि कानए लगाल। राजा सेहो सकदम्म भेल सभटा खिस्सा सूनि रहल छलाह। ओ किछु बाजए चाहलनि, मुदा जीह जाँतल जेना भए गेल रहनि।
ओ परेत दम्म साधि फेर बाजल- मायक किरिया-करममे करज चढ़ि गेल। मास दिन पर जखनि मोहनमाला टुटल तखनि जान सँ उपर काज लगलहुँ। सक्क नै लागए। पेट बढि गेल रहए। लोक सभ कहए जे तिल्ली बढि गेल छह। पथ्थो पानि पर आफद तँ दवाइ-बीरो कतए सँ होइतै। हम खटोसल भए गेलहुँ। सभटा भार फुलिया पर पड़ि गेलै। तावत एकटा टेल्ह सेहो जनमि गेल रहै। ओकरा कन्हेठने ओ देवानक हवेली जाए आबए लगलै। काराक बासि सँठले हमरा लेल नेने आबए आ अपने की खाए से नै बुझियै। बादमे बुझलियै जे हवेलीक अँइठ खाए अपन पेट पोसै-ए। ई बात एक कान दू कान बयाबान भए गेलै। बिरादरीमे फुलियाक बदनामी हुअए लगलै। हमरा सभ कहए- हवेली क काज छोडा दहक।
 हम खेंघरा पर ओंघराइत सभटा लहूक घोट जकाँ पियैत रहलहुँ। बैसकीक दामस सेहो देल गेल। मुदा फुलिया के किछुओ टोकबाक साहस नै हुअए।

किछु दिन जखनि हवेलीक सुअन्न खोराकी भेटल, तखनि कने सक्क भेल। एक दिन हमहूँ फुलियाक जरे हवेली पर गेलौं कोनो काज मङै लेल। पानिमे पैसएवला काज करबाक साहस नै हुअए।
हवेली पर पहुँचले रही कि एकटा अजगुत खेल देखलहुँ। उतरबरिया कोठाक असोरापर कुमर आ कुमरी खाइत रहथि। चेड़ी सभ भाँति-भाँतिक पकमान सभ चङेरिए चङेरी रखने रहैक। ओहीठाम नीचाँमे थहाथहि करैत टोल परहक धीयापुता रहैक। कुमर आ कुमरी थारमे एक-एक टा पकमान लिअए। जे नीक लगै से अपने खाए, नहि तँ धियापुताक हेंज दिस फेकि दै। दू चारि टा कुकूर सेहो ताक लगओने रहै। फेकल पकमान के लुझै लेल जखनि छौडासभ पछड़म-पछड़ा करए तँ ओहि दुनूक संग चेड़िया सभ सेहो हँसए। इएह खेल रहै। एही हेंजमे हम अपन फेकनाके सेहो देखलियै। हमरा घिरना भए गेल।
हम अपन फेकनाकें डेन धएने घूरि गेलहुँ। फुलियाके सेहो हवेली छोड़ाए देलियैक। एहिपर फुलिया कने नाकर-नुकर कएलक। कहबो कएलक जे हवेली महलमे काज करै छियै। सालमे टू टा फाटलो-पुरान तँ भेटि जाइए। चिक्कन केहन रहै छै, जेना भेटक फूल होइ। फुलियोके बोचा मियाँक सलगासँ हवेलीक फाटल-पुरान बेसी रुचए लागल रहैक। मुदा हम कने दमसओलियै तँ मानि गेल।
हवेली तँ छोड़ाए देलियै, मुदा ओही राति ठकउपासक हालति भए गेल। फुलिया खूब हनहन-पटपट कएलक आ फेर भोकाड़ि पाड़ि कए कानए लागलि। हमहूँ कनैत-कनैत सूति रहलहुँ। रातिमे सपन देखलहुँ जे माएक कोरामे सूतल छी। माएक माथपर दुनू कात छही माँछ चमकि रहल छैक। भेटक फूलक माला गरामे महमहा रहल छैक। हम कानि रहल छी, माय चुचकारि रहल अछि। हमरा परतारैत माय कहै छथि जे तों उत्तर नेपाल दिस सुकठीक बनीज करह। खूब उछराए हेतहु।

माएक आढ़ति कतहु बेकार गेलै-ए। से सत्ते, कमला माइ हमरा जे बाट धरओलनि से बड़ नीक लागल। आर चारि-पाँच गोटेके सङोर कएलहुँ। धारमे पानि घटए लागल रहैक। इचना आ पोठीक अबार चलैत रहैक। छानि छानि कए सुखाबए लगलहुँ। सुकठीक बनीज खूब जमल। नेपाल पहुँचिते गामे-गाम छिड़िया जाइ। दुइए दिनमे एक बोड़ा छुहक्का उडि जाए। फेर सभ सङोर कए गाम घुरि आबी।
दुइए सालमे हमहूँ थितगर भए गेलहु। बेस जकाँ रुपैया जर भए गेल। तखनि सभ मीलि कए एकटा पोखरि तेसाला बन्दोबस्त लेलहुँ। भदवारिमे मखान तैयारी करी। मखान तँ अपनहि राजमे बिका जाए।
तेसर साल सुकठी लए कए जखनि नेपाल पहुँचलहुँ तँ एक राति एकटा जंगलमे राति भए गेल। हाथ-हाथ नै सुझै। सभक मोन भेल जे एतहि राति बिताबी। लगमे एकटा घराड़ी सेहो देखलियै। पानियोक सुपास रहै। ओतहि भानसक इन्तजाम-बात भेलै। फुलिया ओहि घराड़ीसँ आगि माँगि आनलक तँ तेहन गप्प कहलक जे छगुन्ता लागि गेल। ओ कहलक जे अपन नगरक पुरना राजाजी एतहि रहै छथि। ओ हिनका सभक बोली-बानीसँ बुझि गेल रहनि। बादमे गरसँ रानीजी कें देखलकनि तँ चट चीन्हि गेलनि। हमहूँ सभ जाइ गेलहुँ सत्ते ओएह रहथि। सभटा ओहिना अखियास छलनि। हमरा सभकें चीन्हि गेलाह। आँखि छुटलनि की घैल भए अएलनि। भरि पाँज कए पकड़ि लेलनि। रातिमे किन्नहु फूट मानस नै करए देलनि।
जखनि गाम घुरि अएलहु तँ राजाजीक गप्प टोल भरिमे कहलियैक। सभ हँसेरीक तैयारीमे लागि गेल। सहथ तँ सभक घरमे रहबे करए बाँकी एक सय फड़सा आ एक सय भाला बनवाए घरे-घर छिपाए देलियैक। राजाजीसँ गप्प कएलाक बाद ठीके दुर्गा महरानी सभक मोन पर सवार भए गेल रहथि। पछिमाहा राजाकें कानो-कान नै भनक लागए देलियै।
तावत भदवारि सेहो बीति गेल रहै। मखानक गूड़ी फोड़ैके जोगारमे लागि गेलहु। राजाक एकटा पोखरिमे तेकड़ी पर मखान उपजओने रही। एक दिन सिपाही आबि कए कहि गेल जे राजाजी अपनै दलान पर सोझाँमे फोड़ओथिन। हम सभटा गूड़ी लए हवेली पर पहुँचलहु। ओतहि सभटा व्योंत धराए फोड़ए लगलहुँ। हमर नियम रहए जे मखान के ढेरी सँ पाँचटा पहिलुक फोंका कमला माइकें भोग लगा दियनि, तकर बाद बाँट-बखरा होइ। थोडेक गूड़ी फोडै लेल बाँकिए छल कि तावत रंगमे भंग भए गेलै।

बड़की रजकुमरी जकर वयस पनरह-सोलह छल हेतै, ऐंठैत-जुठैत आएलि आ देखिते-देखिते मखानक ढेरियेमे हाथ लगाए खाए लागलि। फुलिया एक-दू बेर दबले मुहें रोकबो कएलकै, मुदा ओ माननिहारि नै। तखनि हमहूँ कने जोर सँ कहलियै जे पहिलुक फोंका कमला माइकें चढतनि। अहाँ हाथ लगा देलियै तँ सौसे ढेरी अँइठ भए गेलै। अँइठक नाम सुनिते ओ भभा कए हँसए लागलि आ कहलक जे हम कि गाए-मँहीस जकाँ ढेरीमे मुँह लगाकए खेलियैए? तखनि अँइठ केना भेलै?
निखनात नै ने रहलै”- कहलकै फुलिया।
ई गप्प-सप होइए रहै कि ओ चंडलबा राजा हनहनाइत आएल।
- की बकझक करै छें? गोढिबे, बड़ अँइठ-कुँइठ बुझए लगलहिन-ए। भाँड़मे जाथु तोहर कमला माइ। सरबे पंडिताइ झारै छें। चुपचाप काज कर।'- राजा बमकए लागल।
हमरहु एँड़ीसँ टिकासन धरि लेसि देलक। सभसँ बेसी खराब लागल कमला माइ के गरिआएब। भदेससँ आबि कए केओ हमरा सभक अदौके बातकें नकारि देत, ओकरा पर हँसत तँ से केना बरदास्त हैत। एक तँ ई राजा पच्छिम दिससँ जिनिस सभ आनि आनि कए एतुका लोककें कोंढि बना देलक। जखनि मिलहा कपड़ा अनलक तकर बाद बोचा मियाँक दुर्गति हमरा देखल छले। ओइ सभ चालिसँ दूहि लेलक ई अइ लोककें। तइ पर सँ आब हमरा सभक कमला माइकें सेहो गरिआओत। हम सभ जँ कमला माइक अरधना करिते छी, तँ एकर कोन दालि गलै छै। ई सभटा बात हमरा माथमे घुमए लागल। हमहूँ तानि कए कहलियै-  “मुँह सम्हारि कए बाजह। कमला माइक मादे किछु अंट-संट बजलह, तँ जे ने से भए जेतह।

हमर ई गप्प सुनिते ओ चंडलबा राजा जेना बताह भए गेल। हाक देलकै तँ चारि पाँच टा सिपाही दौड़ल। ओहिमे सभ अपने जाति-भाय रहए। मुदा राजाक एँड़ी चटनिहार सभ। ओ सभ डंटा लए कए हमरा चारूदिस सँ लठियाबए लागल। से देखि क हमरा आर लहरि चढ़ि गेल। की कमला माइ ओकरा सभक माय नहि छलखिन?
राजाक आढति पर हमरा दुनू गोटेकें रस्सामे बान्हि घिसियौने एही सिमर गाछ तर अनलक। हमरा गाछक एही डारिमे उलटा लटकाए देलक आ हमरा सोझाँमे ओ पाँचो-छबो टा सिपाही फुलियाके नोंचि पटकि मारि देलकै।
एतबा कहि ओ परेत बपहारि काटए लागल। ओकरा कस्साक मारि मोन पड़ि आएल रहै।
ताबत पह फाटि रहल छलै। राजा उठि कए घैलसँ पानि लए कुरुर कएलनि आ खोपडिमे बैसि रहलाह।
परेत फेर बाजल- हे राजा, आब राति बीति रहलै-ए। आब हमरा चल जएबाक बेर भए गेल। अहाँक दोसर सबालक जबाब हम काल्हि देब
राजाकें भोरहरबाक बसातक सिहकी अलसाए देने छलनि। कने काल लेल आँखि मुनाए गेलनि। सुरुजक इजोत पड़िते आँखि खुजलनि तँ ने परेत छल, ने खोपड़ि, ने घैल। सभ किछु अलोपित भए गेल रहए। ओ सिमरक गाछक जड़िमे अपनाकें दूबि पर बैसल पओलनि। कातमे सुखाएल धार साँपक केचुआ जका बूझि पडि रहल छल।

दोसर दिन राजाक मजलिस लागल। दरबारी सभ जुटल रहथि। चर्चा आरम्भ भेल। सभक मोनमे एकेटा चिन्ता; सभक ठोर पर एके गप्प, कमला माइक कोन अनठ भेलनि, जे एना निसोख भए गेलीह। पोखरिमे सोह किएक नहि फुटैत अछि'। पानि बेतरेक नगरक हालति खराप भए गेल रहैक। एक टूटा जे रजकूप टेक घएने रहए, ओहू सभमे पानि दुइ तीन हाथ खसि पड़ल रहैक। एम्हर बरखाक कोनो टा आस नहि। जखनि हथियो गरजि कए चल गेल, मेघ नहि बरसल, तखनि स्वातीसँ की आस!
राजा घाड़ झुकओने सभटा सुनैत चुपचाप बैसल छलाह। एही बीच दरबान इतलाए बाजल- फाटक पर चारि गोटे ठाढ छथि। सरकार सँ भेटँ करए चाहैत छथि।
राजा कहल- हाजिर करह।
थोड़ेक कालमे ओ चारू गोटे आबि राजाकें सलामी दए कातमे ठाढ भए गेलाह। एक गोटे डाँड़सँ एकटा चीठी निकालि राजाकें देलनि। राजा चीठी पढ़ि जखनि राखि देलनि तखनि ओ बजलाह-
सरकार, अपनेक नगरमे हम सभ अपनेक आदेशसँ हवा-मिठाइक बनीज करैत छी आ ओकर लगान ठीक समय पर खजानामे जमा करैत छी। एहि नगरक धियापुता ई हवामिठाइ किनैत अछि। ई हवामिठाइ बनाए कोन धरानिए अपन नगरसँ अनैत छी, से सरकारकें की कहब। हमरा नगरक रानीजी सरकारक बहिन थिकीह। एही बेर भरदुतियामे जएबामे सरकारकें कोन कष्ट भेल रहएसे जनैत होएबैक। चारि टा धारतँ नाहसँ टपए पडै़ छै। एते तरद्दुत उठाए हम सभ एतए बनीज करैत छी जे दुइ एक सेर धान जर करी आ एहि नगरक धियापुता लिलोह नै हुअए। मुदा........।
मुदा की?” -राजा पुछलनि।
-हम सभ सरकारक जुत्ता तर छी। किछु ऊँच-नीच बजना जाए तँ जान बकसि दी।दाँत निपोड़ैत ओ पइकार बजलाह।
-”निडर भए कहू।राजा गंभीर होइत बजलाह।
-सरकारक खास आदमी हमरा सभक बनीज के भुस्साथरि बैसाबए चाहैत अछि। हमरा सभक पेट पर लात मारए चाहैत अछि। तैयो.........।
-तैयो की? खुलासा बाजू। राजा तनि कए बैसलाह।
-तैयो जँ केवल हमरा सभक बनीजके भुस्साथरि बैसाए हुनकर हिया जुड़ा जानि तँ हमसभ बिना किछु गलगुल कएने दोसर नगरक बाट धए लेब। मुदा एहिमे ओकर छओ कतहु, घाओ कतहु छैक। ओ चाहैत अछि जे एही बहाना सँ सरकारक ठोरक लाली छीनि ली। हमर नगर सँ सरकारक हबेलीमे जे किछु वस्तुजात अबैत अछि, ओहिसभ लेल सरकारकें लिलोह कए दी। बाहरी दिन दुनियाँसँ सरकारक लागि तोडि दी। ताहूसँ बढि कए एकटा भाइ-बहिनक सिनेहक डोरीके झटकि तोडि दी
राजा चौंकलाह। थोड़बे काल पहिने अपन बहिनक चीठीमे पढ़ने रहथि जे सरकार बड़ बिगड़ल छथि। तखनि तँ अर्थ नहि लगलनि, मुदा आब बुझि गेलाह। राजाकें चुप देखि ओ पइकार फेर बजलाह-
हमर नगरक राजाजी बड़ बिगड़ल छथिन। रानीजीसँ चिठी लिखाए हमरा सरकारक सोझाँ हाजिर भए नौ-छौ करबाक आढ़ति देलनि अछि। आगाँ सरकारक आढ़ति माथ पर
-के अछि ओ हरामी, जे एहन काज कए रहल अछि
राजा बमकलाह। लोहा तपि चुकल छल। हथौड़ाक चोट दए तरुआरि बनएबाक ताक भए गेल रहै।
-सरकारक खास आदमी अछि। केसो साहु। हवेलीक खास हलुआइ
-केसो साहु? ओ तँ बड नीक लोक अछि।” राजा कें आश्चर्य भेलनि।
-सरकारक आबेस पाबि ओ अपना कें नल महराज आ धन्वन्तरि वैदराजहु सँ पैघ बुझए लागल आछि।
-ओ की कएलक, से खोलासा बाजह।राजा कने उत्तेजित भए गेलाह।
तुरत केसो साहु बजाओल गेलाह। तखनि ओ पइकार बजलाह- हमर सभक हवामिठाइक ई देखसी कबेचैत छथि। हमसभ एक पसेरी धानमे जतेक बेचैत छी, ओतेक ई एके अढ़ैयामे बेचि दैत छथि। हमसभ मुहें तकैत रहि जाइत छी।
केसो साहुसँ पूछल गेल तँ ओ बाजल- ई ठीके कहैत छथि। एक दिन हमर नाति एक झोड़ी हवामिठाइ किनलक तँ दुइ-चारि टा हमहूँ चिखलहुँ। सुआदलहुँ तँ बुझि गेलियै जे ई मखानक लाबाके बनल छै। ओकरा चीनीक सिरकामे पागि कए रंग मिलाए झोडीमे सीबि कए बेचैत छथि। तखनि हमरा ओ बड़ महग बुझाएल। एक दिन अपन नाति लेल अपनहि सँ बनओलहुँ। तकर बाद आढ़ति पर सँ आढ़ति आबए लागल। हमहूँ घानी पर सँ घानी बनबैत गेलहु। इएह बात छियै सरकार
केसो साहु चुप भए गेलाह। ओ पइकार एक गोटे दिस संकेत करैत उतराचौरी आगाँ बढाओलनि- सरकार, ई छथि हमरा नगर ओ हलुआइ, जे पहिले-पहिल ई हवामिठाइ बनओलनि। आ संगहि दोसर छथि हमरा सभक वैद्यजी; जे ओहि मिठाइमे एहन दवाइ फेंटैत छथि, जकरा खएलासँ तागति बढैत छैक। बहुत तरहक बिमारी सँ बचाओ होइत छैक। हमरा सभक हवामिठाइक बिक्री घटलासँ एहि नगरक धियापुता ओहि दवाइसँ वंचित रहि जाइत अछि आ हिनक बनाओल लाबा खाए ठकल जाइत अछि। तें एहन ठककें सजाए देल जाए। आगाँ सरकारक आढति माथपर
केसो साहु राजाक खास हलुआइ रहथि। हुनकहु अपन लूरि पर गुमान रहनि। तें ओहो हारि मानि चुप बैसनिहार नहि।
-सरकार, हमरे नगरमे उपजल मखानकें माटिक मोल कीनि कए ओकरा ई लोकनि आगिक मोल बेचैत छथि। जतेक हवामिठाइ ई एक पसेरी धानमे बेचैत छथि, ओतेक मखान तँ एतए लोक मङनीमे बिलहि दैत अछि। चीनी बड़ थोड़ लगै छै। ओकरा सोन्हगर बनबै लेल हम कचूर दैत छियैक, जे सभ ठाम बाडी-झाडीमे अलेल उपजै-ए। एहन मिठाइक बदलामे मेहनतिसँ उपजाओल एक पसेरी धान आन नगर चल जाइत अछि, से हमरा नहि सोहाएल, तें हमहूँ बनबए लगलहुँ। टटका-टटकी बनबै छी। टटकाके परतर हिनकर हवामिठाइ कतए सँ करतनि। नै जानि कते दिनुका बनलाहा रहैत छनि।
एतबहिमे हवेलीक घंटा बाजल। सभक भोजनक बेर भए गेल रहनि। तें राजा कने अगुताइत पइकारसँ पुछल- अहाँकें आर जे किछु कहबाक हो से कहि दिय। हम विचार करब आ जा धरि कोनो नौ-छौ नहि भए जाइत अछि ता धरि हवामिठाइक बनीज नहि हुअए। केसो साहु सेहो ओ मधुर नहि बनाबथि'
ओ पइकार बजलाह- हमर हवामिठाइमे सहरगंजा रंग नहि मिलाओल जाइत अछि। ओ रंग हम बनारससँ मङबैत छी। नेपालक जंगल छानि कए आनल जडी-बूटी सँ ओकरा सोन्हगर बनबै छी। जाहि झोडीमे बन्न कए ओ बेचल जाइत अछि से कलकत्तासँ अबैत अछि। ओहिमे बन्न कएलाक बाद बासि-तेबासिमे कोनो अन्तर नहि पड़ैत छैक। मासो दिनका बाद ओहने रहैत अछि। एहि सभमे खर्च पड़ैत छैक, तरद्दुत होइत छैक। तखनि एक सेर धानमे एक झोड़ी बिकाइत अछि। सरकारकें बेसी कहबाक काज नहि। बुधियारकें कनखिए काफी। तखनि तँ सरकारक आढति माथ पर।” 
ओ पइकार चुप भए गेलाह। राजाक मजलिस टुटल। राजा चुप्पे अन्नर दिस बढ़ि गेलाह, जतए चेड़ी हाथ-पयर धोबा ले सोबरना नेने ठाढि छलि।

दिन बीतल; साँझ पड़ल; सूर्य अस्त भेलाह; राति भेल। राजाक छातीक धुकधुकी बढ़ैत गेलनि। पछिला रातुक एक-एकटा गप्प मोन पडैत छलनि तँ रोइयाँ ठाढ़ भए जाइत रहनि। सिमर गाछपर उनटा लटकल ओ परेत आ ओकर हँसब-बाजब आ कानब, सभटा आँखिक सोझाँ नाचि उठनि। बुझाइन जे ओ कोनो दोसर लोकमे आबि गेल होथि। एसकर होइतहि राजा एहि लोकक सभटा बात बिसरि जाथि।
अनमनाएले जकाँ राजा रातुक भोजन कए जखनि अपन कोठरी अएलाह। तखनि दस बाजि रहल छल। सिमर गाछ तर जएबाक बेर लगिचाए गेल रहनि तें छातीक धुकधुकी आर बढ़ि गेलनि। एक मोन भेलनि जे आइ नहि जाइ, मुदा फेर दोसर मोन तुरत चेतौनी देलकनि जे नहि गेला सँ जँ कहूँ ओ परेत खिसिआए गेल तँ किछु कए सकैए। सँगहि इहो मोन मानि गेल रहनि जे गोसाउनि जकरा मादे कहने रहथिन से ओएह परेत थिक। तखनि जँ परेतक सभटा गप्प नै सूनि लेताह तँ कमला माइक रुसबाक कारण आ बौंसबाक उपाय केना बुझताह। तें जाएब तँ आवश्यक छलनि।
समय बितल जा रहल छल। राजा पलंग पर पड़ल टकटकी लगओने घड़ी दिस देखि रहल छलाह। राजाकें घड़ीक प्रतीक्षा जतेक नै छलनि, ओतेक छलनि रानीजीक सुति रहबाक प्रतीक्षा। तें अपन छाती पर राखल हुनक बामा हाथक कँगनाके कखनहु खनखनाए बुझबाक प्रयास कए लेथि जे ओ सूति रहलीह कि जगले छथि।
जखनि बेस काल धरि राजा सूइल सँ पाइत धरि आ पाइत सँ सबरब धरि सोहरओलनि आ रानी नहि सगबगएलीह, तखनि गँओसँ हुनक हाथ अपन छाती परसँ हँटाए कात कएलनि। रानीजीकें नीक जकाँ देखलनि तँ बुझएलनि जे ओ निभेर भए सूतलि छथि। राजा निश्चिन्त भए पलंगसँ उठलाह।
कामदार कपड़ा सभ खोलि सहरगंजा मिरजइ आ धोती पहिरलनि। खुरिया खोंसलनि आ कोठलीक केबाड खोलए बढलाह कि रानीजी भभाकए हँसैत पलंग पर बैसि गेलीह। राजा थकमकाए गेलाह।
रानीजी झटकि कए हिनका आगाँ आबि ठाढ़ भए गेलीह। हुनक खूजल केस भुइयाँ लोटाए लागल, काड़ा खनकि उठल, डँडकस मचकि गेलनि, केचुआ मसकि गेलनि, घोघट ससरि गेलनि, पसाहिन चमकि उठल, लट गमकि उठल, दुनू ठोर थरथरएलनि आ आँखिक दुनू कोरसँ दू बुन्न नोर गाल पर पिछड़ि गेल।
रानीजी बजलीह- राजाजी! राजाजी! एते रातिमे के मोन पड़लीह, कजराबाली कि गजराबाली! मुजराबाली कि बजडाबाली! राजाजी! कतए विदा भेंलहु चुप्पेचाप। राजाजी! रूपाक दियामे हम पाटक टेमी जरौलौं, सोनाक कजरौटीमे हम कजरा जे पाडलों, से कजरा नोरसँ धोखरल जाइए यौ राजाजी! कोस भरिक फुलवारीसँ सोनजड़ी अँचरामे फूल हम बिछलियै, भौंरा कि मधुमाछियोक सूँघल फूल नै छुबलियै, खुरचनक टकुरीसँ बाड़ीक बाँङके हम सूतो कटलियै, ओहि सूतक तानीमे हम गजरा गँथलियै। अहाँक हाथक छुतियो ने भेलै; सिरमामे डाला पर, पुरैनिक पतौड़ामे, रखले मौलाए गेलै, यौ राजाजी! ओहो कजरा, ओहो गजरा रूचल नै अहाँ के, यौ राजाजी! तखनि आब हम नयनाक नोरसँ, हियाक दिया जरएबै, सुन्न अकासक कजरौटीमे पाड़ल कजरा हम लगेबै, इन्द्रक फुलवारीसँ लोढ़ल फूलक गजरा हम गँथबै, अछियाक बजड़ापर चढ़ि संसारक समुद्र नाँघि, ओहि पार हम जेबै, इन्द्रक फुलवारीक एक कोनमे अहाँक नामक हम आसन लगेबै, आसनक आगाँमे मुजरा लगेबै। ओतए तँ अहाँ अएबै ने यौ राजाजी!
रानीक आँखिसँ दहो-बहो नोर झहरए लागल। राजाकें अकबक किछु नहि सुझाइन। असल बात कहि रानीजीकें डेरबए नै चाहैत रहथि। तखनि किछु कहि परतारि कए चलि दितथि, से कठिन छलनि। ओ दूधक धोएल तँ छलाह नहि जे हुनक बातपर रानीजीकें विश्वास भए जैतनि। एहिना कतेक राति ठकि-फुसियाकए गजराबाली आ कजराबालीक दुआरि नाँघि चुकल छलाह। तें ओ अस्त्र सभ आब रानीजी लेल व्यर्थ भए गेल छल।
तखनि राजा बजलाह- हे धनि! जुनि कानू। गोसाउनिक सीरपर बरैत दीप अहाँ छी। नगरक चौबटियापर जरैत अंडी तेलक उकारीसँ सौतिनिया डाह किए करै छी? आश्विनीसँ रेवती धरि तारका सभक भोग कएनिहार चन्द्रमा की अपन चन्द्रिकाकें छोड़ि दैत छथि!! हे धनि, अग्निक ज्वाला, जलक शीतलता, आकाशक शून्यता जकाँ अहाँ हमर छी, जकरा बिना कजराबाली कि गजराबालीक कोनो मोल नै। मुदा एखनि तँ ओकर चर्चे व्यर्थ! हम तँ आइ दोसर काजसँ जा रहल छी। एकटा आवश्यक राजकाज भए गेल अछि।
- “एतेक रातिमे?” रानीजीकें जेना विश्वास नै भए रहल छलनि।
- “हँ धनि, आफदक बेरमे की राति आ की दिन?”
- तखनि कपड़ा छाड़बाक कोन काज?” रानी जिरह करए लगलखिन।
राजाक चोरि पकड़ा गेल। एकर कोनो जबाब हुनका लग नहि बँचल। अन्तमे राजा थाकि हारि सभटा खेरहा सुनाए देल।
रानी बजलीह-  “हमरहु सँ छल कएलहुँ, राजाजी! हमरा तँ कहितहुँ। मुदा आब पछिला चूकक गप्पे कोन? आइ हमहूँ जाएब अहाँक संग।
अहाँ?” -राजा कुदि उठलाह।
- “हँ राजाजी! भूत-परेतक मुँहमे एसकर केना जाए देब। अहाँक रक्षा लेल हमहुँ जायब।
- “हमर रक्षा अहाँ करब?” राजाकें रानीक ई गप्प ओहिना अनसोहाँत लागि रहल छलनि जेना ओ पुरैनिक पातक ढाल लए लड़ाइमे जएबाक गप्प कहि रहल होथि!
- “हँ राजाजी! बियाहक साल सुखराती निशाभाग रातिमे नानीसँ जे सिखलहुँ से आइ नै तँ कहिया काज देत?”
राजाकें सभटा रहस्यमय बुझा पड़ि रहल छलनि। रानीक एतेक आत्मविश्वास! सुुखरातीक निशाभाग रातिमे किछु सिखबबाक बात सुनि राजाकें ठकमूडी लागि गेल।
- “एना की तकै छी? हमर नानी की सभ जनै छलीह आ हमरा कते सिखओलनि से आइए परताए लिय। अपन टोना-टापरसँ हम एहन घेराबा बनाए लेब, जकर भीतर परेतक बापो किछु नहि कए सकत।रानीक मुट्ठी तनि गेल।
- “मुदा दूनू गोटे जाएब केना? पहरूदार बुझि जाएत, तँ सौसे घोल भए जाएत, तखनि एक-एकके सभ संग लागि जाएत।
- “केओ नहि बुझत। थम्हू कने। हम सभटा जोगाड़ धराए लैत छी।
रानीजी केबाड़ खोलि फुलबाड़ी पैसलीह; ओतए एकटा पैघ सन मएनाक पात तोडलनि। भनसाघर गेलीह; पिठार पिसलनि आ आबि गेली झट दए राजाक लग; मएनाक पातपर अरिपन देलनि। अपनहु ओहिपर ठाढ़ भए गेलीह आ राजाजीकें सेहो सटि कए ठाढ़ होएबा लेल बजओलनि। गेंठ जोड़लनि; किछु मन्त्र पढलनि आ ओ मएनाक पात धरतीसँ उठल आ खुजल केबाड़ देने आङन आएल आ अकासमे उड़ए लागल।
रानी पुछलनि- डर तँ ने होइ-ए?”
नहि, आब सभ डर बिलाए गेल।राजाजी हुनका भरि पाँज पकड़ि सभ किछु समर्पण कए देलनि।
ओ मएनाक पात दुनूकें थम्हने अकासमे उड़ल जा रहल छल। रानीजी बेर-बेर पुछथिन्ह- ओ सिमरक गाछ केम्हर छैक?”
राजाकें दिसाँस लागि गेल रहनि। एक तँ रातिक समय, निचला घर-आङन, गाछ-बिरिछ किछु सुझि नहि रहल छलनि। ताहिपर सँ आकाशमार्ग देने यात्रा। से जएबाक छलनि पूब दिस, देखाए देलखिन पच्छिम दिसक बाट। रानीजी ओम्हरे इसारा कएलनि; ओ मएनाक पात ओम्हर उड़ए लागल। जखनि किछु दूर गेलाह तँ एकटा खूब चतरल गाछक अछाह बुझएलनि। ओकरहि सिमरक गाछ बूझि दुनू गोटे ओतहि धरती पर अएलाह। मुदा ओ सिमर नहि पाकड़िक अजोध गाछ छल।
राजा चिंतित भए गेलाह। अन्हार राति चारुकात भकोभन्न। कतए आबि गेल छी, सेहो ज्ञान नहि रहलनि। बिना प्रकाशक संचारसे कोनो उपाय करबामे अपनाकेँ असमर्थ बुझलनि। आकाश स्वच्छ छल, तेँ राजाकेँ अष्टमीक चन्द्रोदयक आस जगलनि। चन्द्रोदयमे किछु बिलम्ब रहैक तेँ ओकरे प्रतीक्षा करैत दूनू गोटे असोथकित भए बैसि गेलाह।
ओही पाकड़िक एकटा धोधड़िमे सोनचिडै दूनू परानी रहैल छल। राजा आ रानी जखनि ओतए बैसलाह तँ चिड़ै चिड़िनसँ बाजल-  हे धनि, आइ देखू जे केहेन हमरा सभक भाग जोड़गर अछि जे एक दिस हमरा सभक सन्तान हुअए बला अछि आ दोसर दिस एहन अभ्यागत आबि गेल छथि। हमरा सभके चाही जे हुनकर स्वागत सत्कार करी
राजा नीचामे बैसल दुनू परानीक गप्प सुनए लगलाह। चिड़िन बाजलि- हँ ठीके कहलहुँ। एक तँ बच्चा हुअए की बूढ़, जबान हुअए कि बेसाहु, घर पर पहुचल अभ्यागत देवताक रूप होइत छथि, ताहूमे ई तँ एहि नगरक राजा आ रानी छथि, सेहो बाट भोतिया कए एतए आबि गेल छथि, तेँ जते धरि भए सकए से हुनकर सत्कार करियौन। दुःखक बात ई जे हमरा आइ बिछाओनहु परसँ उठबाक सक्क नै लगै-ए। तें हुनका दुनूसँ आशीर्वादो लै लेल हम नै निकलि सकब।
- “आर तँ जे से...। सभसँ तँ चिन्ता अछि जे की लए कए सत्कार करबनि? आइ जे हम जर कए अनने छी से एक तरहें अँइठे अछि। ऐंठ लए अभ्यागतक सत्कार करब तँ पाप होएत।चिड़ै बाजल।
- “झोड़ी तँ ओहिना मुनले छैक, तखनि अँइठ केना भेलै? लोलसँ पकडि कए जे अनने छी तेँ अँइठ कहै छियै की?” चिड़िन पुछलकै।
- “नै से बात नै छै। ई मनुक्खक अँइठ थिक।
- “कत' सँ अनलहुँ?”
हे धनि, आइ हम अहलभोरे अहाँ लेल कोनो बढ़ियाँ सनेसक खोजमे निकलहुँ, तँ इच्छा भेल जे इन्द्रासनक फुलबाड़ी जाए ओतहि सँ कोनो सोन्हगर फल नेने आबी। उड़ैत-उड़ैत ओतए गेलौं तँ ओकर रखबार हमरा एसकरे देखि भीतर पैसबासँ रोकि देलक। ओ कहलक जे एहि फुलबाड़ीमे विना अपन प्रियाके केओ नै जाए सकैए। की देवता, की गन्धर्व आ की पशु-पक्षी, एसकर मुँह बिधुअबैले' एतए टपि नै सकै-ए। अपन जोड़ा नेने आबह तँ जाए देबौक।
तखनि हम अपन सन मुँह नेने धरती पर घुरि अएलहुँ आ एतहि एहि नगर सँ ओहि नगर बौआए लगलहुँ। जाइत-जाइत एक नगर पहुँचलहुँ। ओ नगर एतए सँ पच्छिम अछि। ओतए राजाक अटारीक पछुआड़मे ई हवामिठाइक झोड़ी सभ मारते रास फेकल देखलियै। पहिने तँ हमरा सक भेल जे कहूँ कोनो जाल-फाँस तँ ने बिछाओल छैक। थोडेक काल एहि गाछसँ ओहि गाछ चकभाउर दैत रहलहुँ। देखलियै जे कौओ सभ निधोख भए एक-एकटा झोडी उठाए रहल अछि, तखनि हमरहु कने हिम्मत बढल। मुदा फेर सोचलहुँ जे पहिने एहि हवा मिठाइक सम्बन्धमे सभटा भजिया ली। सन्देह भेल जे एत' ई फेकल किए गेलै? कहूँ जहर-माहुर तँ ने मिझहर भए गेलै? संयोग भेल जे एकटा कौआ ओहि हवामिठाइक झोडी लूझि कए ओही गाछ पर बैसल जाहि पर हम रही। हम ओकरा सँ पुछलियै तँ ओ कहए लागल-
तों दूर देससँ आएल बुझाइत छह तेँ किछु नै बुझल छह। आइ एक माससँ सौंसे नगरमे घरे-घरे ताकि कए ई फेकल जाए रहलै-ए।
-किए फेकल जाए रहलै-ए?” -हम पुछलियै।
-किछु नै बुझल छह? तखनि सुनह चुपचाप। करीब एक मास भेल हेतै। रजकुमरीके मोन खराप भए गेलैक। एकटा वैद अएलै। ओकर दवाइ गुन नै कएलकै। दोसर अएलै। तेसर अएलै। एहिना वैद सभक धरड़ोहि लागि गेलै, मुदा रजकुमरी निकें नै भेलै। तखनि बहुत दूरके नगरसँ एकटा वैद अएलै। ओ रजकुमरी के मादे च-तु कए सभटा पुछारि कएलकै। की-की खाइए; कतए-कतए घुमै-ए; कोन-कोन कपड़ा पहिरै-ए से सभटा पुछलकै। सभटा जखनि भँजिया लेलकै, तखनि जे दवाइ देलकै तेँ दुइए दिनमे रजकुमरी टनमना गेलै। ओएह वैद कहलकै जे ई झोड़ीमे बन्न हवामिठाइ खएला सँ भाँति-भाँति के गरू हेतै। ओएह राजाके कहलकै जे सभकें मना कए दियौ जे ओ हवामिठाइ नै खाए। राजा ओइ वैदक करामात देखि नेने रहए, तेँ विश्वास भए गेलै। तहियासँ अइ नगरक लोक केओ ई हवामिठाइ नै खाइए।
- “तखनि तँ हलुआइ सभक लोटिया बुड़ि गेलै!हम कहलियै।
- “नै बुड़लै। राजा एकटा तरकीब निकालि लेलकै। राजा कहलकै जे ओ हलुआइ सभ ई सभटा हवामिठाइ आन-आन नगरमे जाए बेचत। एहि राजाक सासुर एतए सँ दस कोस पूबमे छै। राजा अपन सारकें कहि ओहि नगरमे बनीज करबाए देलकै। ओतए तँ खूब पैकारी जमि गेलैए।
गाछक तरमे बैसल राजा चौकलाह। सोनचिड़ै हिनके नगरक मादे कहि रहल छल। हवामिठाइक पैकारी ठीके हिनकर नगरमे खूब जमि गेल छलनि। राजा आर कान पाथि कए ओहि सोनचिड़ैक गप्प सुनए लगलाह। सोनचिड़ै कहि रहल छल- हे धनि, सएह कहैत छी जे जखनि केओ ओहि हवामिठाइक भोग कएनाइ छोड़ि देलक, तखनि तँ ओकरामे आ अँइठमे कोन अन्तर? निछरल वस्तुके अँइठ नै कहबै तँ की कहबै। तेँ कहै छी जे एहन अँइठ वस्तु लए राजा-रानी सनक अभ्यागतक सत्कार केना करब।
- “तखनि की करी?” चिड़िन पुछलकै।
- “सएह तँ हम अहाँसँ पूछै छी?”
- एहि पर चिड़िन बाजलि जे राजा आ रानी अन्हारमे भोतिया कए एतए आबि गेल छथि, से अहाँ जाउ, हुनका रस्ता देखा दियनु। बड़ गुन मानताह। आ ई एकटा ठहुरी सेहो दए देबनि। ई हम इन्द्रासनक फुलबाड़ी सँ अनने रही। एकर चमत्कार छै जे मुइल लोक, कि सुखाएल हड्डियोमे जँ ई ठहुरी भिड़ा देल जाएत तँ ओ लोक जीबि उठत।
ई सुनैत देरी राजा खुशी सँ नाचि उठलाह। अखनहु चन्द्रमाके उगैमे किछु देरिए छल, मुदा अन्हार कने कम भए गेल रहै। एही समयमे ओ चिड़ै गाछ परसँ उतरल। आबि कए राजारानीकेँ प्रणाम कएलक आ इन्द्रासनक फुलबाड़ीसँ आनल एक बीतक एकटा ठहुरी राजाक हाथमे देलकनि। राजा ओ लए, माथ चढाए, मिरजइमे खोंसलनि। तकर बाद ओ चिड़ै कहलकनि-
- “हे राजा! हे राजा! अहाँ सभकेँ कतए जेबाक अछि? कहू तँ बाट देखाए दी।
राजा ओहि सिमरक गाछक नाम लेलनि तँ ओ चिड़ै आगाँ-आगाँ उड़ल। रानी सेहो मएनाक पात हँकलनि आ सिमरक गाछतर पहुँचि गेलाह।
तावत धरि अष्टमीक चंद्रमा उगि गेलाह। साँसे बाध इजोरिया पसरि गेल। धरतीक फाटल दरारि सेहो देखा पड़ए लागल।
सोनचिड़ैकेँ घुरि जेबा लेल कहि रानीक सँगे राजा खोपडिमे जाए बैसलाह। पछिला रातिसँ खोपडियो बेसी नाम-चाकर रहैक। एतबे नहि, ओहि दिन पुआरक सेजौटक बदलामे गादी आ मसनद सेहो लागल रहैक। रानी कहलथिन- राजाजी! ई कोनो छोट-छिन परेत नै छी। एकर आत्मा बहुत दिन सँ बौआए रहल छै। एकर उद्धार अहाँकेँ करबाक हएत।
राजा पुछल- केना उद्धार होएतैक से कहू।
रानी उत्तर देलनि- मरबाक काल एकर जे ममोला बाँचल छल होएतैक से जँ पूरा भए जाइ, तँ एकर उद्धार भए जाएत।
दुनू गोटे परेतके अएबाक समयक प्रतीक्षा करए लगलाह। परेत आएल। फेर ओ ओहिना उलटा लटकल छल। ओतहि सँ दुनू गोटेके प्रणाम कएलक आ बाजल- हँ, तँ सुनह हओ राजा। काल्हि राति हमरा हँसी लागि गेल रहए। तकर कारण सुनह। तोहर परदादा अपना जिबैत राज हासिल नै कए सकलखुन ओ अपने नेपालेमे जान गमओलनि। हुनकर बेटा बहुत दिन धरि लड़ाइ करैत रहलाह, तखनि जीत भेलनि। ओ पछिमाहा चण्डलबा राजा मारल गेल। ओकर लोक सभ अपन नगर भागल। नवका राजा जखनि गद्‌दी पर बैसलाह तँ एतुका अपन रोजगारकें खूब सह देलनि। गरीब-गुरबा धन्य-धन्य भए गेल। एहन रहथि ओ राजा। मुदा हुनके सन्तान भए तों अप्पन बोली-बानी, भेष-भूषा, चालि-चलनि सभटा बिसरि गेलह! हओ, देखसी पर कतेक दिन चलएबह ई राजपाट!  हओ, पछिमाहा दारू आ दछिनाहा बुलकीवालीक संग रभसैत काल कहाँ कोनो बाधक रखबार मोन पड़ैत छह! काल्हि केना मोन पड़ि गेल रहह, ई कमलाक कछेरक ई सिमरक गाछ, आ ई पाँच पुस्तक समयसँ उनटा लटकल एकटा गोंढि! तेँ हमरा हँसी लागि गेल रहए।
रानीक आँखिसँ दहोबहो नोर बहए लागल। राजा सेहो अपनाकें सम्हारि नै सकलाह; हिचुकए लगलाह-  “हे कमला माइक सपूत, आइ अहाँ हमर आँखि खोलि देलहुँ। हम एतए बन्धनक तरमे सप्पत खाइ छी जे अप्पन बोली-बानी; चालि-चलनि, भेष-भूषा नै छोड़ब; अनकर देखसीपर नै उड़ब। हम सप्पत खाइ छी। मुदा अखनि हमर राजक प्रजाकें बचाउ। प्रजा पानि-पानि कए मरि रहल अछि। अहाँ चलू। अहाँ गोहारि लगाएब तँ कमला माइ घुरबे करतीह। हमरा सन पतितसँ कमला माइ सत्ते रूसि गेल छथि। अहाँक बात ओ नै कटतीह।
एतबा कहि राजा उठलाह आ सोनचिड़ैक देल ठहुरीसँ ओहि परेतक ठठरीके हँसोथि देलनि। थोडबे कालमे सत्ते ओ परेत एकटा कठमस्त जुआनक बानामे उलटा झुलए लागल। राजा सिमरक गाछपर चढ़ि ओकर पयरक बन्धन खोलि देलनि। मनुक्ख बनल ओ परेत राजाक आगाँमे कल जोड़ि ठाढ़ गए गेल। राजा ओकरा भरि पाँजमे धए लेलनि।
तीनू गोटे पयरे महल घुरि अएलाह। पूब दिशा सिनुराए रहल छल। कमला माइक ओ सपूत कर जोड़ि राजा आ रानी केँ कहए लगलनि- हे राजा, हे रानी, जहिया परेत बनि घुमैत रही तँ मोन होअए जे अइ जिनगीसँ उद्धार भए जाइत, मुदा नहि, आब नै। आब हम सभदिन परेते बनि कए रहए चाहै छी। कमला माइक अइ कोरा सँ बेसी सुख कतौ नै भेटत। हम एतहि रहब, परेते बनल रहब। जहिया-जहिया कमला माइ रूसि जएतीह, तहिया-तहिया हुनका बौंसब। हमर बात मानतीह नै ते कि? आ हमरे किए? सभक बात मानतीह। माय कतौ बेटा सभसँ रुसलै-ए। ओहू बतहियाके की बेटा सभक बिना चेन भेटतै! ओ रूसल नै अछि। हे देखू ने, हम बौसे लेल जाइ छी, मुदा हे राजा, हे रानी, सप्पत मोन राखब।
मनुक्ख बनल ओ परेत बताह जकाँ नाचए लागल आ खुनाओल जाइत पोखरि दिस दौड़ल। पोखरिक मोहारपर पहुँचल आ चिकड़ए लागल- घुरि आउ कमला... घुरि आउ कमला...।आ फेर भोकाड़ि पाड़ि कानए लागल। बड़ी काल धरि कनैत रहल आ फेर एक उझुक डाकनि देलक- नै अएबें, तँ आब हमहूँ कहियो ने बजेबौ, कहियो नै!
मोहारपर भीड़ लागि गेल छल। लोक ओकरा निछट्ट बताह बूझि रहल छलै। मुदा थोड़बे कालमे लोक देखलक जे पोखरिक बीचमे नीचासँ पानिक बमकोला छुटलै आ देखिते-देखिते आधा पोखरि पानिसँ भरि गेल। संगहि लोक देखलक जे ओ बतहा दौड़ल-दौडल गेल आ ओहि पानिमे कूदि गेल। ओ ओतहिसँ चिचिआए लागल- घुरि अएलीह कमला! घुरि अएलीह कमला!!
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Where was the Mithila and the capital of King Janak

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