Tuesday, October 26, 2010

Ramanandacharya the founder of 'Ramavat' cult was Saint Kabir's Guru.

अनन्तदास की 'कबीर परिचई'

कासी बसै जुलाहा ऐक। हरि भगतन की पकडी टेक॥
बहुत दिन साकत मैं गईया। अब हरि का गुण ले निरबहीया॥१॥
बिधनां बांणी बोलै यूं। बैषनौं बिनां न दरसण द्यूं॥
जे तूं माला तिलक बणांवै। तोर हमारा दरसण पावै॥२॥
मुसलमांन हमारी जाती। माला पांऊं कैसी भांती॥
भीतौ बांणी बोल्या ऐह। रांमांनंद पै दछ्‌या लेह॥३॥
रांमांनंद न दैषै मोही। कैसैं दछ्‌या पांऊं सोई॥
राति बसौ गैला मैं जाई। सेवग सहत वै निकसैं आई॥४॥
राति बस्यौ गैला मैं जाई। रांम कह्या अरु भेट्‌या पाई॥
जन कै हिरदै बढ्‌या उछावा। कबीर अपनैं घरि उठि आवा॥५॥
माला लीन्ही तिलक बणाया। कबीर करै संतन का भाया।
लोकजात्रा दरसण आवै। दास कबीर राम गुण गावै॥६॥
कुटंब सजन समधी मिल रोवैं। बिकल भयौ काहे घर षोवै॥
मका मदीना हमारा साजा। कलमां रोजा और निवाजा॥७॥
तब कबीर कै लागी झाला। माथै तिलक गुदी परि माला॥
रे कबीर तूं किन भरमाया। यह षांषंड कहां तैं ल्याया॥८॥
अपनी राह चल्यां गति होई। हींदू तुरक बूझि लै दोई॥
अचंभा भया सकल संसारा। रांमांनंद लग ई पुकारा॥९॥
मुसलमांन जुलाहा ऐक। हरि भगतन का परड्ढा भेष॥
किरषि करै उन हूं कूं देई। बूझ्‌यां नांव तुम्हारा लेई॥१०॥
तब रांमांनंद तुरत बुलाया। आगैं पीछैं परदा द्याया॥
रे कहि माला कब दीनी तोही। अब तूं नांव हमारा लेई॥११॥
हम राति बैसे गैला मैं जाई। सेवग सहत तुम निकसे आई॥
रांम कह्यां अरु पाऊ। हमैं कह्या अरु तुमहैं कहाऊ॥१२॥
तब हूं अपनैं घरि उठि आया। आंनंद मगन प्रेम रस पाया॥
रे यूं तौ रांम कहै सब कोई। ऐसी भांति न हरिजन होइ॥१३॥
गुर गोबिंद कृपा जौ होई। सतगुर मिलै न मुसकल कोई॥
सब आसांन सहज मैं होई। ऐसैं साध् कहैं सब कोई॥१४॥
परगट दरसन द्यौ गुसांई। नही देहौ तो मरिहूं कलपाई॥
नृमल भगति कबीर की चीन्हीं। परदा षोल्या दिछा दीन्हीं॥१५॥
भाग बडे रांमांनंद गुर पाया। जांमन मरन का भरम गमाया॥१६॥
रांमांनंद गुर पाईया, चीन्ह्यं ब्रह्म गियांन।
उपजी भगति कबीर कै, पाया पद नृबांन॥
रांमांनंद कौ सिष है, कबीर ता कौ संत।
भगति दिढांवण औतर्यौ, गावै दास अनंत॥

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