धर्म किसे कहते हैं ?
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति
धर्मेण पापमदनुपति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद् धर्मं परमं वदन्ति। -तैत्तिरीय-आरण्यक १०/६३
सम्पूर्ण विश्व का आधार धर्म ही है। लोग संसार में कल्याण के लिए धर्मिक व्यक्ति के पास जाते हैं। धर्म से पाप का क्षय होता है। धर्म में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। इसलिए धर्म को सबसे बड़ा कहा गया है।
धर्मार्थकामाः किल जीवलोके समीक्षिताधर्मफलोदयेषु।
ये तत्र सर्वे स्युरसंशयं मे भार्येव, वश्याभिसता सपुत्रा ॥ -वाल्मीकिरामायण २/२१/५६
इस जीव-जगत में धर्म-पफल की प्राप्ति के अवसरों पर धर्म-अर्थ-काम ये सब निस्सन्देह जहाँ धर्म है वहाँ अवश्य प्राप्त होते हैं, जैसे पुत्रावती भार्या पति के अनुकूल रहकर सहायक होती है।
अनर्थेभ्यो न शक्नोति त्रातुं धर्मो निरर्थकः । -वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड ८३/१४
जो धर्म मानव की अनर्थों से रक्षा नहीं कर सकता, वह धर्म निरर्थक है।
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोयं सार्ववर्णिकः ॥ -श्रीमद्भागवत ११/१७/२१
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अकाम, अक्रोध, अलोभ तथा सभी प्राणियों के प्रति हित की भावना- ये सभी वर्णों के धर्म हैं।
न धर्मफलमाप्नोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति।
यश्चैनं शंकते कृत्वा नास्तिक्यात् पापचेतनः ॥
जो पाप से सशंक होकर धर्म करता है, उसे दुहना चाहता है, वह धर्मफल को प्राप्त नहीं कर सकता है।
-महाभारत वनपर्व ३१/६
न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात् कामादन्यः प्रवर्तते ॥ -महाभारत उद्योगपर्व ३९/७२
जो अपने लिए प्रतिकूल हो वह दूसरे के लिए भी नहीं करना चाहिए, संक्षेपतः यही र्ध्म है।
अहिंसा सूनृता वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा।
वर्णिनां लिंगिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते। -अग्निपुराण २३७/१० एवं कामन्दकीय नीतिसार २/३२
अहिंसा, मधुर वाणी, सत्य, शौच, दया और क्षमा संन्यासी तथा सामान्य व्यक्ति सभी के लिए सामान्य धर्म है।
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