Tuesday, September 21, 2010

Mandan Mishra of Mithila and his philosophy

मण्डन मिश्र का व्यक्तित्व एवं सिद्धान्त की एक झलक
- भवनाथ झा
प्रकाशन प्रभारी
महावीर मन्दिर, पटना
पूर्वजानां सतां लोके स्मरणेनापि सन्मतिः।
तस्मान्मण्डनमिश्राणां व्यक्तित्वं गीयते मया॥

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को 'करामलकवत्‌' देखनेवाले भारतीय मनीषियों का चिन्तन देश, काल और पात्र से ऊपर का था इसलिए यह सच है कि उन्होंने अपने काल और स्थान का उल्लेख नहीं किया। फलतः ऐसे मनीषियों का व्यक्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से अन्धकारावच्छन्न रहा है। इसलिए आज भी मण्डन मिश्र और भारती के स्थान निर्धारण के लिए हमें अनेक तर्क-वितर्क का सहारा लेना पड़ रहा है।
कोशी के किनारे बसा हुआ महिषी गाँव निश्चित रूप से प्राचीन है। बौद्धों की महायान परम्परा में विद्या की देवी तारा की स्थापना यहाँ की गयी है। श्रावस्ती से प्राप्त एक शिला-लेख में दूसरा श्लोक सरस्वती से अभिन्न तारा की स्तुति में है-
संसाराम्भोधिताराय तारामुत्तरलोचनाम्‌।
वन्दे गीर्वाणवाणीनां भारतीमध्दिेवता्‌।

यह स्थान आजतक असंखय लोगों की आस्था का केन्द्र है। मिथिला में हरिसिंहदेव के काल में जब पंजी निर्माण हो रहा था, उसके पूर्व ही यह गाँव सम्पन्न था। अन्य गाँव से लोग आकर यहाँ बस रहे थे। पंजी में मूल ग्राम के रूप में इसका उल्लेख हुआ है। उस समय बुधबाल महिसी एवं पलिवार महिषी मूल के लोग यहाँ रहते थे। मिथिला विभूति म० म० गंगानाथ झा, आदित्यनाथ झा, डा० अमरनाथ झा आदि के पूर्वज इसी गाँव से सरिसब पाही गये।
इस गाँव की परम्परा समृद्ध है। यहाँ एक जनश्रुति है कि मण्डन मिश्र इसी गाँव में रहते थे। उनका विवाह वर्तमान मधुबनी जिला के भट्ठपुरा निवासी कुमारिल भट्ठ की बहन शादी भारती से हुआ था। इस मण्डन के साथ शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें भारती मध्यस्थ थीं। मण्डन तो हार गये किन्तु भारती जब उनसे कामशास्त्र पर प्रश्न पूछने लगीं तब वे निरुत्तर होकर एक मास की अवधि लेकर गौड देश के राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर गये। उस रूप में कामशास्त्र की शिक्षा लेकर पुनः शास्त्रार्थ करने गये आदि आदि।

जन-परम्परा बतलाती है कि यह शास्त्रार्थ इसी गाँव में हुआ था और मण्डन मिश्र हारकर सुरेश्वराचार्य बनकर दूसरे शंकराचार्य बने। इसके लिए माधवाचार्य के 'शंकर-दिग्विजय' को आधार माना गया है। इस शंकर-दिग्विजय के दो संस्करण मेरे समक्ष उपलब्ध है- पहला संस्करण हरिद्वार से प्रकाशित है, जिस पर आचार्य बलदेव उपाध्याय का हिन्दी अनुवाद है। दूसरा संस्करण द्वारकापीठ से प्रकाशित है। इन दोनों संस्करणों में पाठ-भेद नहीं है। किन्तु स्थानीय परम्परा में कुछ ऐसे श्लोक भी कहे जाते हैं, जिनमें धर्ममूला नदी, तारा देवी आदि का भी उल्लेख है। ऐसे श्लोकों की प्रामाणिकता सन्दिग्ध है। संस्कृत में दो चार श्लोक गढ़ लेना सामान्य बात है।

इन जनश्रुतियों से ऊपर उठकर हमें विचार करना है कि वास्तविकता क्या है। मण्डन मिश्र की कृतियाँ आज उपलब्ध हैं। उन्होंने वेदान्त और मीमांसा के ग्रन्थ लिखे थे। इन ग्रन्थों की परम्परा उपलब्ध है। शांकर दर्शन की भी पूरी परम्परा सबके सामने है। शंकर दिग्विजय पर भी पर्याप्त गवेषणा हो चुकी है अतः हमें इन जनश्रुतियों और प्रक्षिप्त श्लोकों के जाल से ऊपर उठकर विचार करना होगा।

हलाँकि 'शंकर दिग्विजय' में कई ऐतिहासिक भ्रान्तियाँ है। इसमें शंकराचार्य के साथ भट्ट भास्कर उदयनाचार्य, श्रीहर्ष, अभिनवगुप्त आदि के साथ भी शास्त्रार्थ का उल्लेख है। यहाँ तक कहा गया है कि अभिनवगुप्त को जीतने के बाद शंकराचार्य को भगंदर रोग हो गया, तो शिष्यों ने कहा कि यह तान्त्रिक अभिनवगुप्त की करामात है। ऐसी काल सम्बन्धी भ्रान्तियों से शंकर-दिग्विजय भरी-पड ी है।

यह होते हुए भी 'शंकर-दिग्विजय' में माधवाचार्य व्यक्तित्व और परम्परा के सन्दर्भ में भ्रान्त नहीं हैं। उनकी दार्शनिक दृष्टि कहीं ध्ूामिल नहीं है। अतः केवल काल तारतम्यता को छोड दिया जाए, तो शंकर दिग्विजय से बहुत तथ्य निकल जाते हैं, जो बहिःसाक्ष्य से भी सिद्ध होते हैं।

सर्वप्रथम हम भारती के सम्बन्ध में देखें तो स्पष्ट होता है कि भारती सुरेश्वराचार्य की पत्नी थी न कि मण्डन मिश्र की।
'शंकर दिग्विजय' के तृतीय सर्ग में मण्डन और भारती के विवाह का प्रसंग है। सर्ग के आरम्भ में देवताओं के अवतार ग्रहण का वर्णन है। यह वर्णन पुराणों की शैली से प्रभावित है। भविष्य पुराण में भी मध्यकाल के कतिपय संतों को देवताओं का अवतार माना गया है। इस शैली में एक ध्यान हमेशा रखा गया है कि स्वर्गलोक में जो पति-पत्नी के रूप में स्थापित हैं, वे मर्त्यलोक में भी उसी रूप अवतार लेते हैं। इस प्रसंग में मण्डन को बृहस्पति का अवतार माना गया है तथा सुरेश्वराचार्य को ब्रह्मा का अवतार। ब्रह्मा का अवतार सुरेश्वराचार्य को मानते हुए कहा गया है-

विधिरास सुरेश्वरो गिरां निधिरानन्दगिरिर्व्यजायत।
अरुणः समभूत्‌ सनन्दनो वरुणोऽजायतचित्सुखाहवयः ॥
शंकर दिग्विजय : ३/६
यहाँ आनन्दगिरि को बृहस्पति का अवतार माना गया है किन्तु माधवाचार्य अगले श्लोक में लिखते हैं कि बृहस्पति ने चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन किया था, अतः क्रुद्ध ब्रह्मा के शाप से उन्हें मण्डन मिश्र के रूप में जन्म लेना पड़ा।
चार्वाकदर्शनविधानसरोषधातृ-
शापेन गीष्पतिरभूद्‌ भुवि मण्डनाखयः।
नन्दीश्वरः करुणयेश्वरचोदितः सन्‌
आनन्दगिर्यभिधया व्यजनीति केचित्‌।
शंकर दिग्विजय : ३/८

यहाँ अवतारों की जो सूची है, वह इस प्रकार है-
भगवान्‌ शंकर- शंकराचार्य
विष्णु - पद्‌मपाद
वायु - हस्तामलक
वायु का दशवाँ अंश- तोटक
नन्दी - उदंक
ब्रह्मा - सुरेश्वराचार्य
बृहस्पति - आनन्दगिरि
अरुण - सनन्दन
वरुण - चित्सुखाचार्य

ब्रह्मा ने जब सुरेश्वराचार्य के रूप में अवतार लिया, तब सरस्वती ने भी उभयभारती के रूप में जन्म लिया। यहाँ अवतार लेने के कारण का उल्लेख करते हुए बाणभट्ट के हर्षचरित की कथा कह दी गयी है।
अथावतीर्णस्य विधेः पुरन्ध्री साऽभूद्यदाख्‌योभयभारतीति ।
सरस्वती सा खलु वस्तुवृत्त्या लोकोऽपि तां वक्ति सरस्वतीति ॥
शंकर दिग्विजय : ३/९
उभयभारती के पिता का नाम विष्णुमित्र था। वे शोण नदी के तट पर रहते थे। दामाद विश्वरूप की आगवानी करते हुए विष्णुमित्र का इस प्रकार वर्णन किया गया है-
शोणस्य तीरमुपयातमुपाशृणोत्‌ स
जामातरं बहुविधं किल विष्णुमित्रः ।
प्रत्युज्जगाम मुमुदे प्रियदर्शनेन
प्रावीविशद्‌ गृहममुं बहुवाद्यघोषैः ॥
शंकर दिग्विजय : ३/४९

सुरेश्वराचार्य विश्वरूप के नाम से किसी राजघराने में रहते थे। उन्होंने जब उभयभारती के विषय में सुना और उभयभारती ने विश्वरूप के विषय में सुना, तो परस्पर पूर्वानुराग हुआ। दोनों ओर से अभिभावकों ने विवाह की अनुमति के लिए ब्राह्मणों को भेजा। जब वरपक्ष के ब्राह्मण कन्यापक्ष के पास पहुँचे, तो उभयभारती के पिता विष्णुमित्र ने इस विषय में अपनी पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा कि वर दूर देश में रहता है, उसकी विद्वत्ता, आयु, कुल और चरित्र के विषय में कुछ जानती नहीं, तब कैसे विवाह की अनुमति दूँगी। इसपर विष्णुमित्र ने दूर देश में अपनी बेटी ब्याहने के कई उदाहरण दिए और फिर कहा कि वह वर बौद्धों के दुर्जय सिद्धान्त को खण्डित कर वैदिक मार्ग प्रतिष्ठापित करनेवाले भट्टपाद कुमारिल का शिष्य है-
किं केन संगतमिदं सति मा विचारी-
यो वैदिकीं सरणिमप्रहतां प्रयत्नात्‌।
प्रातिष्ठिपत्‌ सुगतदुर्जयनिर्जयेन
शिष्यं यमेनमशिषत्‌ स च भट्टपादः । ।
शंकर दि्‌ग्विजय : ३/३६
इस प्रकार उभयभारती के पिता को कुमारिलभट्ट का परिचय देना पड़ रहा है, तब वह उभयभारती कुमारिल की बहन कैसे हो सकती है।

इस कथा से एक और बात निकलती है कि ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती का विवाह तो ब्रह्मस्वरूप सुरेश्वराचार्य से ही होगा। अतः सुरेश्वराचार्य का ही एक नाम विश्वरूप था, वे मण्डन मिश्र के नाम से भी प्रसिद्ध थे। याज्ञवल्क्य स्मृति के एक टीकाकार के रूप में विश्वरूप का उल्लेख विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा टीका के मंगलाचरण में की है-
याज्ञवल्क्यमुनिभाषितं मुहुर्विश्वरूपविकटोक्तिविस्तृतम्‌
धर्मशास्त्रामृजुभिर्मिताक्षरैर्बालबोध्विषये विविच्यते।

इस धर्मशास्त्राी विश्वरूप ने कुमारिल भट्ट के मीमांसा-श्लोकवार्तिक ग्रन्थ से प्रर्याप्त उद्धरण लिया है। पी.बी. काणे ने धर्मशास्त्र का इतिहास के आरम्भ में ही विश्वरूप के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त किया है :-

''यों तो विश्वरूप पूर्वमीमांसा के समर्थक से लगते हैं, किन्तु उनके दार्शनिक मत शंकराचार्य के मत से बहुत मिलते हैं। उनके अनुसार मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान द्वारा होती है और यह संसार अविद्या के कारण है।''धर्मशास्त्र का इतिहास : भाग-१, पृष्ठ-६७, चतुर्थ संस्करण

इस प्रकार विश्वरूप ब्रह्मसिद्धिकार मैथिल मण्डन से भिन्न थे।

अद्वैत दर्शन की परम्परा में मैथिल मण्डन मिश्र की परम्परा कतिपय प्रसंगों में अलग है। अद्वैतवादी दार्शनिक होते हुए भी उनके पृथक्‌ प्रस्थान को संक्षेपशारीरकभाष्य में सर्वज्ञात्म मुनि ने स्पष्ट प्रतिपादित किया है -

जीवन्मुक्तिगतो यदाह भगवान्‌ सत्सम्प्रदायप्रभु-
र्जीवाज्ञानवचस्तदीदृगुचितं पूर्वापरालोचनात्‌ ॥
अन्यत्राापि तथा बहुश्रुतवचः पूर्वापरालोचना-
न्नेतव्यं परिहृत्य मण्डनवचस्तद्ध्‌यन्यथा प्रस्थितम्‌ ॥
संक्षेपशारीरक :- २/१७४

यदि 'शंकरदिग्विजय' के अन्तःसाक्ष्य को ही प्रमाण मानें तो सरस्वती के अवतार उभयभारती का विवाह ब्रह्मा के अवतार सुरेश्वराचार्य से हुआ था, जिनका नाम संन्यास ग्रहण से पूर्व विश्वरूप भी था। और मण्डन मिश्र इनसे भिन्न बृहस्पति के अवतार थे, जो मैथिल थे। साथ ही शंकराचार्य के साथ विश्वरूप का शास्त्रार्थ हुआ था न कि मैथिल मण्डन से।

संक्षेपशारीरक में सर्वाज्ञात्म मुनि ने मण्डन मिश्र के प्रस्थान को पृथक्‌ माना है। यदि हम थोड़ी देर के लिए यह भी मानते हैं कि संन्यास ग्रहण से पूर्व जो मण्डन थे, वे ही संन्यास ग्रहण के बाद सुरेश्वराचार्य बने और अपना पृथक्‌ मत परिवर्तित कर लिया, तथापि सुरेश्वराचार्य के साक्षात्‌ शिष्य सर्वज्ञात्म मुनि उनका नाम ग्रहण इस रूप में कदापि नहीं करते।

शंकरदिग्विजय में माधवाचार्य ने विश्वरूप और सुरेश्वराचार्य को अभिन्न माना है। यह अभेद अन्य बहिरंग प्रमाणों से भी सिद्ध है। किन्तु मण्डन मिश्र के साथ भी यदि माधवाचार्य के अनुसार विश्वरूप का तादात्म्य माना जाए तो यही सिद्ध होगा कि मण्डन मिश्र भी उन्हीं का नाम था और वे नर्मदा तट पर थे। किन्तु इस निष्कर्ष को मानने पर हमें यह मानना होगा कि सर्वज्ञात्म मुनि ने संक्षेपशारीरक भाष्य में जिस 'मण्डनवचः परिहृत्य' कहकर विशेष प्रस्थान की चर्चा की है, वहाँ भी मण्डन, विश्वरूप और सुरेश्वराचार्य एक ही हैं। अर्थात्‌ सर्वज्ञात्म मुनि ने सुरेश्वराचार्य के पूर्व नामधारी मण्डन के उस सिद्धान्त को पृथक्‌ बतलाया है जो 'ब्रह्मसिद्धि' के सिद्धान्त के अनुकूल है। इस श्लोक की व्याखया में स्वामी रामतीर्थ लिखते हैं कि- किन्तु मण्डनवचः परिहृत्य त्वक्त्वा, हि यस्मात्‌ तत्‌ अन्यथा प्रस्थितम्‌। प्रस्थानान्तरं यत्‌, जीवस्यैव अज्ञानमिति मण्डनस्य मतं यत्‌ तथैव तदस्तु नास्माकं तदुपरोध्यमित्यर्थः''रामतीर्थ द्वारा प्रस्तुत यह उद्धरण मण्डनमिश्र के ब्रह्मसिद्धि में उपलब्ध है। मण्डन यह मानते हैं कि अविद्या का आधार जीव है,

यत्तु कस्याविद्येति जीवानामिति ब्रूमः । (ब्रह्मकाण्ड)
जबकि शंकराचार्य का मत है कि अविद्या का आधार भी ब्रह्म है। इस मतान्तर का उल्लेख रामतीर्थ ने किया है, अतः रामतीर्थ ने यहाँ ब्रह्मसिद्धिकार मण्डन का ही उल्लेख किया है।

सर्वज्ञात्म मुनि सुरेश्वराचार्य के साक्षात्‌ शिष्य माने जाते हैं। संक्षेपशारीरक के टीकाकार रामतीर्थ स्वामी ने इस ग्रन्थ के मंगलाचरण के निम्नलिखित श्लोक के द्वारा गुरु सुरेश्वराचार्य की वंदना सिद्ध की है-

इदानीं साक्षात्‌ स्वगुरुं सुरेश्वराचार्यमभिपूजयति-
यदीयसंपर्कमवाप्य केवलं
वयं कृतार्था निरवद्यकीर्तयः ॥
जगत्सु ते तारितशिष्यपंक्तयो
जयन्ति देवेश्वरपादरेणवः ॥
यदीयसम्पर्कमिति ॥ ते देवेश्वरपादरेणवो जगत्सु संसारमण्डले जयन्तीति योजना । (१/८)

तब यह मानना होगा कि उन्होंने अपने गुरु सुरेश्वराचार्य के संन्यास ग्रहण के पूर्व नाम का उल्लेख परिहृत्य मण्डनवचस्तद्ध्‌यन्यथा प्रस्थितम्‌ में किया है। किन्तु यह सम्भव नहीं। ऐसा एक भी उदाहरण आजतक हमें नहीं मिला है, जिसमें किसी शिष्य ने अपने गुरु का नाम लिया हो, वह भी बिना किसी आदरसूचक शब्द के प्रयोग का। इस संक्षेपशारीरक के टीकाकार रामतीर्थस्वामी ने उसी श्लोक की व्याखया में कहा है कि 'बहुश्रुतैः' शब्द से सुरेश्वराचार्य का संकेत किया गया है।
''बहुश्रुताः सुरेश्वराचार्यप्रभृतयः । ''
ऐसी स्थिति में हमें यह मानना होगा कि माधवाचार्य ने विश्वरूप और मण्डन को जो एक माना है वह या तो असंगत है या विश्वरूप मण्डन से भिन्न कोई मण्डन अवश्य हैं, जिन्हें सर्वज्ञात्म मुनि ने अनादर भाव से ही सही, प्रस्थानान्तर के प्रतिष्ठाता के रूप में उल्लिखित किया है।

वाचस्पति निर्विवाद मैथिल हैं। उन्होंने जिस मण्डन के सिद्धान्त का अनुसरण कर शांकर मत का खण्डन किया है वे मण्डन भी मैथिल होंगे।
अतः सिद्धान्त रूप से यह निष्कर्ष निकलता हैं कि-

१. ब्रह्मसिद्धिकार मण्डन मैथिल थे।
२. विश्वरूप, सुरेश्वराचार्य नर्मदा तट के थे।
३. मिथिला में कोई शास्त्रार्थ नहीं हुआ।
४. यह शास्त्रार्थ रेवा अर्थात्‌ नर्मदा तट पर हुआ।
५. भारती मैथिल मण्डन की पत्नी नहीं थी।

रेवा अर्थात्‌ नर्मदा नदी के तट पर शास्त्रार्थ होने के कई संकेत मिलते हैं। शंकरदिग्विजय के आठवें सर्ग के प्रारम्भ में ही इस स्थान का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रफल्लराजीववने विहारी तरंगरिंगत्कणशीकरार्द्रः।
रेवामरुत्कम्पितसालमालः श्रमापहृद्‌भाष्यकृतं सिषेवे॥८/३

यह श्लोक दोनों उपलब्ध संस्करणों में एक समान है। अब कोई रेवा के स्थान में 'कोशी' शब्द डाल दें तो उनका क्या कहना?
मैथिल मण्डन वेदान्ती होने के साथ-साथ मीमांसक थे और ज्ञानपूर्वक कर्म सिद्धान्त के पक्षधर थे। वे षड्‌दर्शन के भाष्यकार दुर्धर्ष दार्शनिक वृद्धवाचस्पति के आदर्श दार्शनिक थे। वे कभी पराजित नहीं हुए, बल्कि शांकर दर्शन की परम्परा में अपनी पृथक्‌ स्थापना के कारण डटे रहे।

मैथिल मण्डन का जन्मस्थान कहाँ था, इसके सम्बन्ध में ठोस प्रमाण तो हमारे पास उपलब्ध नहीं है, किन्तु इस महिषी गाँव की जन-परम्परा जब यह मानती है कि ब्रह्मसिद्धिकार मण्डन का स्थान यहीं था, तो इसे अस्वीकार करने के लिए अभी हमारे पास कोई प्रमाण नहीं। यहाँ की स्थानीय परम्परा को पुष्ट आधार देने के लिए किसी काल में 'शंकरदिग्विजय' में स्थानीय परिवर्तन किया गया होगा, यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उग्रतारा स्थान, कन्दाहा का सूर्य मन्दिर, सिंहेश्वर स्थान आदि जो प्राचीन देवस्थान इस क्षेत्र के आसपास हैं, इससे प्राचीन काल में क्षेत्र उन्नत था, यह सिद्ध होता है। इस क्षेत्र में मैथिल मण्डन रहे होंगे और उन्होंने अद्वैत वेदान्त और मीमांसा में अपनी धारा स्थापित की होगी।

यहाँ हम पाठकों की संतुष्टि का लिए 'ब्रह्मसिद्धि' से कर्म एवं ज्ञान के प्रसंग में विवेचन दे रहे हैं।


मण्डन मिश्र की परम्परा एवं कर्म और ज्ञान के बीच सम्बन्ध
-भवनाथ झा


सभ्यता के विकास के प्रत्येक चरण में अग्नि के साथ हमारा अटूट सम्बन्ध रहा है। जब ग्रामों और नगरों की संस्कृति स्थापित हुई तो अग्नि के संरक्षण की आवश्यकता हुई। घर के पूर्व दक्षिण कोण में, जहाँ दिनभर सूर्य की किरणें पड़ने के कारण नमी सबसे कम रहती थी, वहाँ अग्नि को संरक्षित किया गया और हमारे पूर्वजों ने उसकी रक्षा करने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। ये अग्निदेव हुए, जो परिवार के आधार बने, परिवार की ईकाई के आधार बने, सभ्यता के विकास के आधार बने। घर का पूर्व दक्षिण कोण अग्निकोण इसलिए कहलाया, क्योंकि घर के इसी कोण में अग्निदेव की स्थापना होती रही साथ ही यह घर का सबसे पवित्र स्थल कहलाया क्योंकि उसी कोने में हमारे पूर्वज देवताओं के निमित्त आहुतियाँ देते रहे। घर में अग्निकोण को देवता-स्थल मानने की परम्परा आज भी मिथिला में विद्यमान है, जबकि अन्य क्षेत्रों के वास्तुशास्त्र की परम्परा पूर्व-उत्तर कोण को देवस्थल कहती है। मिथिला में आज भी अग्निकोण का महत्त्व उसी आदिकालीन वैदिक परम्परा का प्रतीक है।
मानव सभ्यता में परिवार की स्थापना होने के साथ ही पूरी दिनचर्या उसी स्थापित अग्नि के चारो ओर घूमती रही। अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए समिधा चाहिए, ज्वलनशील तरल पदार्थ घृत चाहिए, इसी अग्नि पर भोजन पकाकर हमारे पूर्वज खाते थे ;चरुपाक एवं चरुप्राशन, अन्न, पेय आदि का संस्कार कर उसे खाद्य बनाने के लिए जितने साध्न थे, चमस, ओखल, मूसल, सूर्प, दर्वी आदि सभी गृह्यसूत्रों में परिवार के उपकरण नहीं, यज्ञ के उपकरण के रूप में उक्त हैं। परिवार=यज्ञ यह समीकरण मानव के विकास का वह चरण है, जब हमारे पूर्वज खानाबदोश की संस्कृति को छोड कर एक स्थान पर बसने लगे थे, कृषि-संस्कृति विकसित हुई थी और इसी विकास के दौर में अग्नि हमारे देव बने। देव शब्द का अर्थ है- दीप्त, द्योतित।

इस प्रकार यज्ञ विकसित मनुष्य की आदिम पारिवारिक दिनचर्या है, वही कर्म है, पुरुषार्थप्राप्ति का साधन है। इसी अग्नि के निकट हमारे पूर्वजों ने वेदों की रचना की भाषा का विकास हुआ सभ्यता उत्तरोत्तर विकसित हुई।
इसी यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों और विध्यिों से सम्बद्ध मन्त्रों और वाक्यों का सम्पादन यजुर्वेद के रूप में हुआ, जिसकी माध्यन्दिन शाखा की परम्परा मिथिला में याज्ञवल्क्य से चली। इसमें ४० अध्याय हैं जिनमें ३९ यज्ञ-कर्म से सम्बद्ध हैं और अन्तिम अध्याय ज्ञान से सम्बद्ध। ईशावास्योपनिषद्‌ के नाम से केवल १७ मन्त्रों का जो अध्याय है, वही वेद का अन्तिम भाग 'वेदान्त' है, ज्ञानकाण्ड है। याज्ञवल्क्य ने मिथिला मे ही शतपथब्राह्मण की रचना की। इसमें १४ काण्ड हैं, अन्तिम काण्ड 'बृहदारण्यकोपनिषद्‌' है। वह 'अरण्य' में की गयी विचार-गोष्ठी का प्रतिपादन है, ज्ञानकाण्ड है।
जो गृहस्थ थे, उनके ऊपर विशेष दायित्व था। छोटे बच्चों का भरण-पोषण, सामाजिक सम्बन्धें की रक्षा, वंश की रक्षा आदि का भार था। फलतः उनकी अनेक कामना थी। फलतः वे पुत्रकाम, पशुकाम आदि यज्ञों की ओर प्रवृत्त हुए, कर्म बना। गृहस्थ=यज्ञ=अग्नि=कामना यह समीकरण बना। उस समय गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ में बहुत अध्कि अन्तर नहीं था।

सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ जटिलता भी बढ़ती गयी। गृहस्थों के बीच आवश्यकताएँ बढ ी फलतः दिनचर्या व्यस्त रहने लगी। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय निकालने में असमर्थ सिद्ध होने लगे। फलतः एक व्यक्ति=एक मुखय कार्य, शेष गौणकार्य की अवधारणा पनपी। गृहस्थ ब्राह्मणों ने यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन को अपनाया। गृहस्थ थे, अतः दान करते थे और खेती करना छोड चुके थे स्वामित्व नहीं था। अतः अपनी आवश्यकता की पूर्त्ति के लिए दान लेते भी थे। इस प्रकार वे षट्‌कर्मी बने। मानव मात्रा में देवताओं के प्रति श्रद्धा थी, आस्था थी और देव-कृपा से सुख प्राप्ति की अभिलाष थी, फलतः ब्राह्मण श्रद्धास्पद बने, क्योंकि वे यज्ञ करते थे। फलतः गृहस्थ ब्राह्मण=यज्ञ का समीकरण बना।
इस यज्ञ में पशुओं के प्रत्येक अंग से आहुति देने का विधान था, किन्तु याज्ञवल्क्य ने इसके विकल्प में अन्नमय पशु का विधान किया। तथापि सद्यः मांस से आहुति की परम्परा विद्यमान रही। फलतः गृहस्थ ब्राह्मण=यज्ञ=पशुहिंसा यह समीकरण बना।
जैनियों और बौद्धों ने हिंसा का विरोध किया, याज्ञिक गृहस्थ ब्राह्मण उनके निशाने पर पड े। इसी काल में अग्नि तथा गार्हस्थ्य जीवन का भी तिरस्कार हुआ।
आचार्य मण्डन ने सर्वत्र मिथिला की कर्मवादी परम्परा की पुष्टि की है। 'ब्रह्मसिद्धि' के ब्रह्मकाण्ड में कर्म और ज्ञान के सम्बन्ध की पूर्ण व्याखया की गयी है।

ब्रह्मसिद्धि में प्रश्न उठाया गया है कि यजुर्वेद के जो दो भाग हैं- उनचालीस अध्यायों का कर्मकाण्ड और एक अध्याय ज्ञानकाण्ड, ये दोनों एक कार्य की सिद्धि करते हैं या पृथक्‌ कार्य की सिद्धि करते हैं। इस प्रश्न पर उन्होंने दो तर्क उपस्थापित किये हैं कि कर्म का फल स्वर्ग है और ज्ञान का फल ब्रह्मप्राप्ति है अतः कर्म और ज्ञान अलग-अलग कार्य के साध्क हैं। दूसरा पक्ष है कि कर्म और ज्ञान दोनों ब्रह्मप्राप्ति ही साधन हैं।
इसी स्थल पर कर्म और ज्ञान के बीच सम्बन्ध् पर विचार किया गया है। इस प्रसंग में मण्डन मिश्र ने सात पक्षों को उपस्थापित किया है-
कुछ दार्शनिकों का पक्ष है कि यज्ञ, पूजा-पाठ आदि कर्म करने से सांसारिक विषय-भोग के प्रति आसक्ति से छुटकारा मिल जाता है और यजमान शान्त चित्त हो जाता है, उसकी शारीरिक क्रियाएँ नियमित हो जाती है, जिससे वह शान्त, दान्त और समाहित चित्त होकर आत्मज्ञान का अधिकारी हो जाता है। अतः यज्ञादि कर्म करने से स्वर्गादि प्रतिपादित पफल की प्राप्ति हो या न हो, वह आत्मज्ञान का अधिकारी हो जाता है। इस पक्ष में कर्म और ज्ञान को बीच एकाधिकारी अर्थात्‌ ब्रह्मप्राप्ति रूप एक कार्य का साधक माना गया है। 'ब्रह्मसिद्धि' के भाष्य 'भावशुद्धि' में यह ब्रह्मदत्त के मत के रूप में उपस्थापित है।

इस पक्ष का खण्डन करते हुए मण्डन मिश्र कहते हैं कि स्वर्गादि प्राप्ति के लिए किये गये कर्म से कर्ता को अन्य फल की अपेक्षा नहीं रती है वह तो एकचित्त होकर स्वर्ग की कामना करता है इसी प्रकार आत्मज्ञान के जो साधन हैं उसमें यज्ञ विधि की अपेक्षा नहीं होती है, वह ब्रह्मचर्य आदि से सिद्ध हो जाता है।
अतः कर्म को ज्ञानप्राप्ति के मार्ग में एक साधन नहीं माना जा सकता है-
न हि कर्मादिविधयः स्ववाक्यसमधिगतस्वर्गादिकार्याः कार्यान्तरमपेक्षन्ते नाप्यात्मज्ञानविधिर्यथोदित -ब्रह्मचर्यादिसाधननिराकांक्षः कर्मविधीनपेक्षते। तत्र कुत एकाधिकारत्वम्‌।
यहाँ एक शंका की जा सकती है कि कर्मविधि का वाक्य है- स्वर्गकामो यजेत। अर्थात्‌ स्वर्ग की कामना जो करते हैं वे यज्ञ करें। यहाँ स्वर्गप्राप्ति याजन रूप कर्म के फल के रूप में नहीं कहा गया है। स्वर्ग तो 'पुरुष' का एक विशेषण मात्र है किन्तु आत्मज्ञान के वाक्य में फल के रूप में कैवल्य स्पष्ट है अतः कर्मविधि और ज्ञान विधि दोनों का फल कैवल्य ही है और कर्मविधि ज्ञान विधि का साधन है।
इस शंका का निवारण करते हुए मण्डनमिश्र कहते हैं कि 'स्वर्गकामो यजेत' का अर्थ नहीं समझने के कारण ऐसी आशंका उठ सकती है कि इस वाक्य में स्वर्ग का कथन फल के रूप में उक्त नहीं है। ऐसे अज्ञानी को पहले जैमिनीय सूत्र के 'स्वर्गकामाधिकरण' की व्याखया पढ़नी चाहिए- 'स्वर्गकामाधिकरणमस्मै व्याचक्षीत'।
दूसरी शंका होती है कि नाम रूपात्मक प्रपंच तो नश्वर है जबकि ब्रह्म शाश्वत है। इस प्रकार अग्निहोत्रादि का फल स्वर्ग और प्राणिघातादि का फल नरक, इन दोनों के नश्वर होने के कारण हमें मान लेना चाहिए कि विधिशास्त्र और निषेध शास्त्र का परिणाम मोक्ष है और स्वर्ग एवं नरक आकस्मिक हैं अर्थात्‌ अकारण हैं। मण्डन मिश्र ने इस आक्षेप का निराकरण किया है कि यह मान लें कि सब कुछ नश्वर है तब मोक्ष भी आकस्मिक ही हो जाएगा और सभी विधिनिषेधशास्त्र व्यर्थ हो जाएँगे।

कर्म को ज्ञान का सहकारी मानने वाले दार्शनिकों का एक पक्ष यह है कि जैसा उपदेष्टा गन्तव्य ज्ञान का पता बतलाते हुए अनेक गाँवों को क्रमशः गन्तव्य बतलाता है, उसी प्रकार मुखय लक्ष्य तो ब्रह्म-प्राप्ति है किन्तु इसके मार्ग में आपतित स्वर्ग आदि को भी अभीष्ट फल वेदवाक्य में कह दिया गया है। इस पक्ष का निराकरण करते हुए मण्डन मिश्र कहते हैं कि उपर्युक्त दृष्टान्त में मार्ग में आपतित गन्तव्य तक पहुँचने पर भी यात्री की आकांक्षा बनी रहती है अतः उसे प्रयोजन की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु यज्ञादि कर्म से स्वर्गादि प्राप्त होते ही कर्ता को पुरुषार्थ की प्राप्ति हो जाती है और वह निराकांक्ष हो जाता है अतः कर्मविधि का कार्य ब्रह्मज्ञान नहीं है।
उत्तरोत्तर-ग्राम-गमन के इस दृष्टान्त पर विशेष विमर्श करते हुए एक पूर्वपक्ष में कहा गया है कि यदि यह कहा जाये कि यात्रा के क्रम में एक ग्राम मिलेगा जहाँ दूध मिलेगा, अगले ग्राम में फल मिलेगा फिर आगे मिठाई मिलेगी। ऐसी स्थिति में तो प्रत्येक ग्राम में फल की प्राप्ति होती हीं जाएगी। इसी प्रकार ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में स्वर्गादि फल का भी कथन किया गया है। यह पक्ष भी मण्डन मिश्र को स्वीकार्य नहीं है। वे कहते हैं कि प्रत्येक गाँव में जाकर फल प्राप्त कर भी यात्री की आकांक्षा की निवृत्ति नहीं होती है इसलिए वह अगले ग्राम के लिए चल देता है, किन्तु यहाँ स्वर्ग मिलते ही यजमान सन्तुष्ट हो जाता है वह निराकांक्ष हो जाता है। साथ ही फलप्राप्ति पूर्वक उत्तरोत्तर ग्रामाभिगमन वाले दृष्टान्त में यात्री जब अन्तिम ग्राम पहुँच जाता है और वहाँ विशिष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है, तब वह प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा जानता है कि इस फल की प्राप्ति के लिए हमें बहला-फुसला कर अमुक मार्ग से भेजा गया था। अतः इस दृष्टान्त में यह बोध प्रत्यक्ष प्रमाण का फल है, शाब्द प्रमाण का नहीं। यहाँ तो वेदवाक्यों के शाब्द-प्रामाण्य का प्रसंग है। यहाँ तीसरा दोष यह है कि मार्ग के ग्रामों में जब फलों की प्राप्ति होती जाती है तो साथ चलने वाले उदासीन यह समझते जाते हैं कि इसी फल के लिए हमें इस गांव में जाने के लिए कहा गया था और अन्तिम गन्तव्य स्थान पर पहुँचने पर जिस फल की प्राप्ति होती है उसी फल के लिए उस स्थान को मान लेता है। उसे कभी इस बात का बोध नहीं होता है कि गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के निमित्त हमें विभिन्न ग्रामों से होकर गुजरने का उपदेश किया गया था।

यद्यपि यह ठीक है कि पूर्व में प्रदर्शित गाँवों में जाना आगे के ग्रामों में गमन करने के लिए उपकारक है, किन्तु वहाँ प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति होने पर उपकार्योपकारकता का बोध होता है। यह बोध प्रत्यक्ष के कारण होता है शब्द के कारण नहीं। और भी, उपकार्योपकारकता को बोध होने पर भी हम कर्म को अवच्छेदकावच्छेदेन ज्ञान का उपकारक नहीं मान सकते हैं। जैसे यजन, अध्यापन आदि के द्वारा अर्जित धन यज्ञ का उपकारक होता है। उस धन के बिना यज्ञ सम्भव नहीं है तथापि उस धन का आंशिक उपयोग ही यज्ञ के लिए होता है अतः हम यजनादि का फल यज्ञ को नहीं मान सकते हैं। उसी प्रकार कर्मविधि को यदि ज्ञानविधि के लिए आंशिक रूप से उपकारक माना जाए तो कोई आपत्ति नहीं, किन्तु समग्रतया कर्म को ज्ञान का उपकारक नहीं माना जा सकता है।
उत्तरोत्तर ग्राम होते हुए नगर गमन के इस दृष्टान्त में यदि मान लें कि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा भी यदि बोध होता है कि प्रत्येक गाँव में जाने का उपदेश नगर-गमन के उद्देश्य से किया गया है, तब भी कर्मविधि को ज्ञानविधि का प्रयोजक माना जा सकता है। यहाँ मण्डन मिश्र ने कहा है कि ऐसा सम्भव है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हम ऐसा मान लें, किन्तु कर्म करने से तो फल की प्रत्यक्ष प्राप्ति नहीं होती है, उस फल की प्रतिपत्ति केवल शब्द प्रामाण्य से होती है, अतः वैदिक कर्म विधि एवं ज्ञान विधि के प्रसंग में प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा ही व्यर्थ है। अतः यह कहना कि प्रत्यक्ष प्रमाण से कर्मविधि ज्ञान विधि का उपकारक है, यह उचित नहीं।

इस पक्ष के खण्डन में एक और तर्क है कि यात्री यदि यह मानकर चले कि हम नगर पहुँचाने के उद्देश्य से इन ग्रामों से होकर गुजरने का उपदेश किया गया है, तब वह उन उन ग्रामों में मिलनेवाले फलों के प्रति उदासीन हो जाएगा और या तो कहने पर भी उन उन ग्रामों से होकर यात्रा नहीं करेगा या गुरु आदि के आदेश के प्रभाव से चला भी जाए तो उन्हें मधुर आदि फलों की प्राप्ति नहीं होगी। वे मधुरादि फल अर्थवाद मात्र हो जायेंगे और अर्थवाद की प्राप्ति नहीं होती है। तब वेद के विधि और निषेध वाक्यों का फल केवल मोक्ष माना जाए तो अभ्युदय और पतन अकारण हो जायेंगे। अतः विधि-निषेध स्वरूप कर्मकाण्ड का पफल स्वर्ग-नरक आदि हैं मोक्ष नहीं।
यहाँ मण्डन मिश्र अभ्युदय आदि की आकस्मिकता पर विचार करते हुए पुनः कहते हैं कि यज्ञ में प्रयाज और अनुयाज याग प्रधन यज्ञ के अंग हैं और उपकारक हैं फिर भी दोनों के पृथक्‌ पृथक्‌ फल कहे गये हैं। इसी प्रकार यदि हम यह भी मान लें कि कर्मविधि भी ब्रह्म-प्राप्ति के उपकारक अंग रूप हैं तो अभ्युदयादि अकारण नहीं रहेंगे। किन्तु यह पक्ष भी उचित नहीं। प्रयाजादि के जो फल हैं, वे स्वतन्त्र रूप से पुरुषार्थ नहीं हैं। अतः वे प्रधान याग के अंगस्वरूप होकर प्रधान याग की ओर प्ररित करते हैं, किन्तु कर्म के फल पुरुषार्थ हैं अतः वे क्यों दूसरे पुरुषार्थ की ओर प्ररित करेंगे? अतः कर्मविधि और ज्ञान विधि में एकाधिकार नहीं है।
यदि यह भी कहा जाए कि यज्ञादि कर्म से सांसारिक प्रवृत्ति का निवारण हो जाता है तब यजमान शान्त, दान्त और समाहित चित्त होकर आत्मज्ञान का अधिकारी हो जाता है, तो यह भी संगत नहीं। ''मा हिंस्यात्‌ सर्वभूतानि'' इस निषेध वाक्य से भले हिंसा की प्रवृत्ति समाप्त हो जाए किन्तु 'अग्निहोत्रं जुहुयात्‌ स्वर्गकाम' इत्यादि विधिवाक्य से प्रवृत्ति ही होगी। फलतः वह शान्त, दान्त और समाहित चित्त नहीं हो सकेगा।

इस पक्ष के खण्डन में एक और तर्क है कि यात्री यदि यह मानकर चले कि हम नगर पहुँचाने के उद्देश्य से इन ग्रामों से होकर गुजरने का उपदेश किया गया है, तब वह उन उन ग्रामों में मिलनेवाले फलों के प्रति उदासीन हो जाएगा और या तो कहने पर भी उन उन ग्रामों से होकर यात्रा नहीं करेगा या गुरु आदि के आदेश के प्रभाव से चला भी जाए तो उन्हें मधुर आदि फलों की प्राप्ति नहीं होगी। वे मधुरादि फल अर्थवाद मात्र हो जायेंगे और अर्थवाद की प्राप्ति नहीं होती है। तब वेद के विधि और निषेध वाक्यों का फल केवल मोक्ष माना जाए तो अभ्युदय और पतन अकारण हो जायेंगे। अतः विधि-निषेध स्वरूप कर्मकाण्ड का पफल स्वर्ग-नरक आदि हैं मोक्ष नहीं।
यहाँ मण्डन मिश्र अभ्युदय आदि की आकस्मिकता पर विचार करते हुए पुनः कहते हैं कि यज्ञ में प्रयाज और अनुयाज याग प्रधन यज्ञ के अंग हैं और उपकारक हैं फिर भी दोनों के पृथक्‌ पृथक्‌ फल कहे गये हैं। इसी प्रकार यदि हम यह भी मान लें कि कर्मविधि भी ब्रह्म-प्राप्ति के उपकारक अंग रूप हैं तो अभ्युदयादि अकारण नहीं रहेंगे। किन्तु यह पक्ष भी उचित नहीं। प्रयाजादि के जो फल हैं, वे स्वतन्त्र रूप से पुरुषार्थ नहीं हैं। अतः वे प्रधान याग के अंगस्वरूप होकर प्रधान याग की ओर प्ररित करते हैं, किन्तु कर्म के फल पुरुषार्थ हैं अतः वे क्यों दूसरे पुरुषार्थ की ओर प्ररित करेंगे? अतः कर्मविधि और ज्ञान विधि में एकाधिकार नहीं है।
यदि यह भी कहा जाए कि यज्ञादि कर्म से सांसारिक प्रवृत्ति का निवारण हो जाता है तब यजमान शान्त, दान्त और समाहित चित्त होकर आत्मज्ञान का अधिकारी हो जाता है, तो यह भी संगत नहीं। ''मा हिंस्यात्‌ सर्वभूतानि'' इस निषेध वाक्य से भले हिंसा की प्रवृत्ति समाप्त हो जाए किन्तु 'अग्निहोत्रं जुहुयात्‌ स्वर्गकाम' इत्यादि विधिवाक्य से प्रवृत्ति ही होगी। फलतः वह शान्त, दान्त और समाहित चित्त नहीं हो सकेगा।

यदि कर्मविधि से सांसारिक-प्रवृत्ति-निरोध के समर्थन में कहा जाये कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी सुख के लिए होती है और वैदिक कर्मों की प्रवृत्ति भी सुख के लिए होती है। अतः दोनों का अनुष्ठान एक साथ होने पर दोनों में विरोध उत्पन्न होगा और वैदिक कर्मविधि से अनुष्ठान करने पर स्वाभाविक रागादिजन्य कर्मों की निवृत्ति हो जाएगी। यह मत मण्डन को अभीष्ट नहीं। वे कहते हैं कि दोनों कर्मों के फल एककालिक नहीं हैं, अतः वे दृष्टार्थ हैं किन्तु वैदिक कर्मविधि का फल अनियतकालिक एवं अदृष्ट हैं। इस प्रकार दोनों के बीच कोई विरोध नहीं होगा और वैदिक कर्मों से रागादिजन्य कर्मों की निवृत्ति नहीं होगी। इसका दृष्टान्त देते हुए मण्डन मिश्र कहते हैं कि 'सांग्रहिण्या यजेत ग्रामकामः'' इस श्रुति से ग्राम प्राप्ति के लिए सांग्रहिणी याग का विधान है। साथ ही लोग में राजा की सेवा से भी ग्राम-प्राप्ति हो जाती है किन्तु वैदिक सांग्रहिणी याग के साथ राजा की सेवा का कोई विरोध नहीं होता है।

दोनों कर्मों के बीच विरोध का खण्डन हुए आगे कहा गया है कि यदि वैदिक कर्म के कारण लौकिक कर्म का त्याग कर दिया जाए तो धन के अभाव में वैदिक कर्म कर पाना सम्भव नहीं होगा। और भी, वैदिक कर्म और लौकिक कर्म दोनों सुख भोग के लिए हैं अतः इनमें कोई अन्तर नहीं है। ''स्वर्गकामो ज्योतिष्टोमेन यजेत'' इस वैदिक कर्म विधि के द्वारा किया गया यज्ञ भी सुख के निमित्त ही होता है, अतः दोनों में कोई अन्तर नहीं। फलतः वैदिक कर्म करने से लौकिक कर्म की निवृत्ति होने के कारण वैदिक कर्म को ज्ञान प्राप्ति का साध्न नहीं माना जा सकता है।
यदि हम यह कहें कि ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ सुख प्राप्ति के निमित्त नहीं होते क्योंकि 'स्वर्गकामः' इस पद में 'स्वर्ग' शब्द का व्यवहार अप्रधान रूप में किया गया है और अप्रधान का अन्वय फल के साथ नहीं होता है अतः ज्योतिष्टोमादि याग सकाम कर्म नहीं है धनार्जन आदि लौकिक प्रवृत्तियाँ सकाम हैं। इसलिए दोनों में विरोध है!
यहाँ खण्डन करते हैं कि यदि ज्योतिष्टोम आदि का फल स्वर्ग नहीं माना जाए तो स्वर्ग और नरक अकारण हो जायेंगे और तब जैमिनि-सूत्र व्यर्थ हो जायेगा।

अतः वैदिक कर्म से लौकिक कर्म का निरोध नहीं होने के कारण वैदिक कर्म ज्ञान का साधन नहीं है। इस प्रकार मण्डन मिश्र ने कर्म और ज्ञान के बीच साध्य-साधन भाव सम्बन्ध का खण्डन कर कर्म की पृथक्‌ सत्ता का समर्थन किया है।

द्वितीय मत-
कर्म और ज्ञान के बीच सम्बन्ध लेकर दूसरा मत है कि जिसे सांसारिक सुख की प्राप्ति नहीं हुई है उसका मन सदैव उसी ओर लगा रहता है। जिससे वह हमेशा व्याकुल रहता है, ऐसा व्यक्ति उस परम अद्वैत का दर्शन नहीं कर पाता है। अतः ज्ञान की प्राप्ति के लिए सुख-भोग आवश्यक है। सुख-भोग वैदिक कर्म से होता है अतः कर्म और ज्ञान के बीच साध्य-साधन भाव सम्बन्ध है। इस पूर्व पक्ष को स्पष्ट करते हुए मण्डन मिश्र ने 'कठोपनिषद्‌' को उद्धृत किया है-
'यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिता।
अथ मर्त्योऽमृतो भवति अत्र ब्रह्म समश्नुते॥
(कठ २।३।१४)

अर्थात्‌ जब हृदय में स्थित सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती है तब वह अमर होकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं।
इस पक्ष का खण्डन करते हुए मण्डन मिश्र ने कहा है कि कामना की प्राप्ति से कामनाओं का नाश नहीं होता अपि तु कामना में अनित्यत्वादि दोष दिखाई पड़ने से उत्पन्न विवेक कामनाओं का नाश करने में समर्थ होता है। कामना के स्पर्श मात्रा से लोगों का मन आत्मज्ञान से भटक जाता है। यहाँ अपने पक्ष के समर्थन में मनुस्मृति को उद्धृत किया है-
''न जातु कामः कामानामुपभोगेन शम्यति।''
अर्थात्‌ कामनाओं के उपभोग से कामना शान्त नहीं होती हैं।
योगसूत्र-भाष्य में भी कहा गया है-
''भोगाभ्यासमनुविवर्द्धन्ते रागाः कौशलानि चेन्द्रियाणाम्‌।''

अर्थात्‌ कामनाओं के सतत उपभोग से इन्द्रियों के प्रति आसक्ति बढ़ती है। अतः कामनाओं की पूर्ति से आत्मज्ञान सम्भव नहीं है। इस प्रकार कर्म से ज्ञानाधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि कर्म विधि का अभाव होने से लोग यज्ञ आदि सकाम कर्म नहीं कर सभी क्लेशों को नाश करनेवाले आत्मज्ञान की ओर ही प्रवृत्ति होंगे अतः कर्म और ज्ञान में व्यतिरेक है अन्वय नहीं।
दूसरी ओर आत्मज्ञान की कामनाओं का नाश नहीं कर पाता। श्रुति कहती है कि ब्रह्म परम आनन्द स्वरूप है किन्तु उसका अनुभव तो किसी ने नहीं किया है। वह अननुभूत आनन्द सांसारिक सुख के अनुभूत आनन्द को थोड ी भी हानि नहीं पहुँचा पाता तो समूल नष्ट करने की बात कैसे? इसलिए एकमात्र विवेक है जो कामनाओं का नाश करने में समर्थ है। कर्म विधि तो इसके विपरीत कार्य ही करती है।

मृत्यु के बाद शरीर भस्म हो जाता है और आत्मा शेष रह जाती है इस प्रकार आत्मा में ही शरीर का विलय हो जाता है- यह श्रुति कहती है। ऐसा मानकर यदि हम कहें कि
स्वर्ग कामो यजेत'
इस कर्म विधि में स्वर्गफल प्राप्त करनेवाली आत्मा है और इस आत्मा में शरीर का विलय हो जाता है, अतः कर्म विधि ज्ञानकार साधन है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'स्वर्गकामो यजेत' इस कर्मविधि में शरीर का बोध होता है न कि शरीर से भिन्न आत्मा का बोध होता है।
अब यहाँ यदि कहा जाए कि ठीक है कि 'स्वर्गकामो यजेत' वाक्य से आत्मा का नहीं शरीर का ही बोध होता है तथापि काम आदि की प्रवलता का तो बोध होता ही है, क्योंकि कामादि की प्रबलता के कारण ही अग्निहोत्र आदि यागों के प्रति रुचि जगती है। इस प्रकार यागों के प्रयोजन से ही जानते है। इस प्रकार कर्मविधि से भी आत्मा का ज्ञान होता है। इस पक्ष के खण्डन में मण्डन मिश्र ने कहा है कि यह कथन उपहासास्पद है। जब वेद स्पष्ट रूप से साक्षाद्धि. इत्यादि बृहदारण्यकोपनिषद्‌ ३।८।८ के द्वारा शरीर और इन्द्रियों का आत्मा में विलीन होने की बात प्रत्यक्ष्य रूप से कही गयी है तब 'स्वर्गकामो यजेत' इस कर्मविधि वाक्य के द्वारा अनुमान से आत्मा में देहादि के विलय होने की बात क्यों करें?

जब सामने हाथी दिखाई पड़ रहा हो तब उसके पैर का चिह्नन देखकर अनुमान करने की क्या आवश्यकता है। यज्ञ के प्रयोजन से तो काम आदि ग्रन्थियों की प्रबलता श्रुति भी मानती ही है। अतः कर्मविधि शरीरपरक है, इससे आत्मा का बोध नहीं होता है। अतः कर्मविधि ज्ञान का साधन नहीं है।
इस प्रकार कर्म और ज्ञान के सम्बन्ध में जो दूसरा मत कहा गया है कि कामनाओं की पूर्ति हो जाने पर उससे निवृत्ति हो जाती है और वह ज्ञानाधिकारी हो जाता है, यह सही नहीं हैऋ क्योंकि एक तो कामना की पूर्ति से कामना नष्ट नहीं होती है बल्कि अधिक हो जाती है और दूसरी बात है कि यज्ञ का फल मिल जाने के बाद उसकी आकांक्षा समाप्त भी हो जाए, तो वह ज्ञान के लिए यत्न करेगा, इसका कोई प्रमाण नहीं है। साथ ही यदि हम मोक्ष के अधिकारी को भी कर्म का अधिकारी मान लेंगे तो सभी कर्म ज्ञान के साथ सम्बद्ध हो जायेंगे जो कि असम्भव है। अतः कर्मविधि और ज्ञानविधि के अधिकारी एक नहीं हो सकते।
अभी तक पूर्व पक्ष के रूप में यह चर्चा हुई है कि जो ज्ञान अधिकारी हैं वे कर्म के अधिकारी हो जाते हैं। मण्डन मिश्र ने इस मत का खण्डन किया है। अब वे इसके विपरीत क्रम से एकाधिकार विषयक पूर्व पक्ष का विवेचन करते हुए कुछ दार्शनिकों का मत उपस्थापित करते हैं कि जो कर्म के अधिकारी हैं वे ज्ञान के अधिकारी भी हो जाते हैं। यह भी मण्डन मिश्र का अभीष्ट नहीं है।
(क्रमशः)

2 comments:

  1. नमस्ते !
    आपका विद्वत्ता व् शोध पूर्ण लेख पढ़ा |
    मेरा प्रश्न है कि ==>वो कौन से कामशास्त्र विषयक प्रश्न थे जो भारती जी ने शंकराचार्य जी से किये थे ? यदि किसी पुस्तक में इन प्रश्नों का उल्लेख हो तो कृपा कर जानकारी दें | अग्रिम धन्यवाद |
    विदुषामनुचर
    विश्वप्रिय वेदानुरागी

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  2. हिनक स्मृतिदिवस

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