Monday, October 4, 2010

A Hindi poetry by Bhavanath Jha

तनहाई

वह कैसी तनहाई!
दुनिया की नजर में जश्ऩ मेँ डूबा हो कोई!
साथी को कंधे पर ढोता हुआ फूलोँ-भरी वादियोँ सैर करे!
तन्हा नहीँ है वह?
सिर्फ अहसास होता है दूसरे के वजूद का,
जब कंधे का घट्ठा कभी कभी दर्द देने लग जाता हो!

यह कैसी तन्हाई!/
घने जंगल में साथ चलते चलते/
सारे साथी अपनी अपनी राह पकड़ लेते हैं/
कोई नहीं कह सकता कि कौन भटक गया है/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है/
वरना अपनी राह पर भी /
वही चिड़ियों का चहचहाना, हवा का सरपट दौड़ना.../
सब कुछ काफी है तन्हाई तोड़ने के लिए/
हवा, पानी, सूरज, चाँद, तारे, /
फूलोँ भरी झूमती डालें/
लोरी से मार्शिया तक गाती चिड़ियाँ /
कलकल जल से मुखरित झरने/
तन्हाई तोड़ते हैं/
मैं अकेला नहीं होता हूँ/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है॥

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