Thursday, November 18, 2010

Mahayana cult in Buddhism

'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' में तांत्रिक साधना

बौद्ध तान्त्रिक ग्रन्थों में 'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें बुद्ध को बोधिसत्व के रूप में भगवान्‌ माना गया है और महायान-परम्परा के मूल सिद्धान्तों के आधार पर साधक द्वारा उनके प्रत्यक्षीकरण और उनके द्वारा प्रदत्त वर से सकल मनोरथ सिद्धि की बात कही गयी है। इसके साथ अलौकिक सिद्धियों मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, आकर्षण आकाशगमन आदि के लिए विभिन्न तान्त्रिक क्रियाओं का वर्णन है। सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, भोग-विलास के लिए अनेक प्रकार की सकाम उपासना यहाँ वर्णित है।
चीनी यात्री फाहियान ने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि पाटलिपुत्र में मद्द्रजुश्री नामक एक महायानी ब्राह्मण रहते हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ पायी है। फाहियान ने इस इत्सिंग ने अपने ग्रन्थ में दो स्थानों पर मंजुश्री की चर्चा की है और लिखा है कि भारतीयों यह विश्वास है कि मंजुश्री हैं और आज भी महाचीन में जीवित हैं। इत्सिंग द्वारा दी गयी इस सूचना से दो बातें स्पष्ट हैं कि महाचीन सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में महायानी तान्त्रिक साधना के केन्द्र के रूप में विखयात था और भारत में भी मंजुश्री द्वारा प्रवर्तित साधनाएँ पर्याप्त प्रचलित थीं। इस प्रकार 'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' के अध्ययन से सातवीं-आठवीं शती में बौद्ध-साधना की दशा एवं दिशा पर प्रकाश पड़ता है।
'आर्यमंजुश्रीमूलकल्प' का एक संस्करण अनन्तशयन संस्कृत ग्रन्थावली के अन्तर्गत १९२० ई० में टी. गणपति शास्त्री के सम्पादन में प्रकाशित हुआ, जिसका पुनर्मुद्रण १९९२ ई. में सी.बी.एच प्रकाशन, त्रिवेन्द्रम्‌ से हुआ है। मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा से भी इस ग्रन्थ का एक संस्करण महायानसूत्र संग्रह नाम से दो भागों में डा.पी.एल. वैद्य के सम्पादन में हुआ है। प्रस्तुत आलेख के लिए मैंने आधार ग्रन्थ के रूप में सी.बी.एच. प्रकाशन द्वारा पुनर्मुद्रित प्रति का उपयोग किया है।
इस ग्रन्थ की भूमिका में टी. गणपति शास्त्री ने उल्लेख किया है कि १९०९ ई. में पद्‌मनाभपुरम्‌ के निकट मनलिक्कर मठ में उन्हें तालपत्र पर देवनागरी लिपि में लिखित ३००-४०० वर्ष प्राचीन पाण्डुलिपि मिली। इसकी पुष्पिका के अनुसार मध्यदेश के मूलघोष विहार के अधिपति पण्डित रविचन्द्र ने आर्यमंजुश्री के यथालब्ध कल्प को लिपिबद्ध किया। इस पुष्पिका से दो बातें स्पष्ट होती हैं कि आर्यमंजुश्री के अनेक कल्प थे तथा बौद्ध-बिहारों के अधिपति भी इन तान्त्रिक-कल्पों साधना मार्गों के संकलन के लिए प्रयासरत रहते थे। इस ग्रन्थ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि एक साधना की अनेक विधियों का वर्णन भिन्न-भिन्न पटलों में किया गया है। इस प्रकार की विविधता इन साधनाओं की लोकप्रियता प्रमाण है।
इस ग्रन्थ में अनेक प्रयोंगों में माँस से आहुति देने का विधान किया गया है। इसके ४१वें पटल में कहा गया है कि मनुष्य के मांस को घी के साथ मिलाकर धूप देने से पुष्टि होती है। मनुष्य की हड्‌डी का चूर्ण कौआ तथा उल्लू के पंख से धूप देने पर शत्रु की मौत होती है। गाय का पित्त, मनुष्य की हड्‌डी तथा घी का धूप देने से भी शत्रु की मौत होती है। मछली का अण्डा, प्रसन्ना और कपास की लकडी का धूप देने पर विदेश गया व्यक्ति भी लौट आता है। मसूर की दाल, मांस तथा मुर्गी के अंडा से धूप देने पर आकर्षण होता है। मूल पंक्ति इस प्रकार हैः-
महामांस घृतेन सह धूपः पुष्टिकरणम्‌। मानुषास्थिचूर्णं काकोलूकपक्षाणि च धूपः मारणम्‌। ..... गोपित्तं मानुषास्थि च घृतेन शत्रोर्मारणे धूपः।
मत्स्याण्डं प्रसन्ना च कर्पासास्थिसमन्वितम्‌।
देशान्तरगतस्य धूपः शीघ्रमानयति नरम्‌॥
विदलानि मसूराणां मांसं कुक्कुटाण्डस्य तु। पृ. ४६३
बौद्ध तान्त्रिक-परम्परा में सहजयान और वज्रयान का उद्‌भव आठवीं शती के आरम्भ में हो चुका था, जिसमें साधिका को भी स्थान दिया गया है, किन्तु मंजुश्री की इस परम्परा में साधिका का कोई स्थान नहीं है और साधना के नाम पर यौनाचार सम्बन्धी संकेत नहीं है। हाँ, पुरुष साधकों की यौनेच्छापूर्ति के लिए यक्षिणी-साधन, आकर्षण के द्वारा सुन्दरियों का आनयन, साधना के द्वारा पत्नी को ही चिरयौवना बनाने की विधियाँ यहाँ हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यमंजुश्री की यह साधना-परम्परा आठवीं शती से प्राचीन है।
फाहियान और इत्सिंग द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि ईसा की पाँचवीं शती से आठवीं शती तक उत्तरपूर्व भारत से महाचीन तक महायानशाखा में मंजुश्री की साधना-परम्परा बौद्ध साधकों एवं सामान्य गृहस्थों में पर्याप्त प्रचलित थी।
आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में पचपन पटल हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में गद्य एवं पद्य का मिश्रण है। इसकी भाषा संस्कृत है, किन्तु पाणिनीय व्याकरण के नियमों की पर्याप्त उपेक्षा की गयी है। विभक्ति, लिंग और वचनों में व्यत्यय है। किन्तु नाम शब्द अपने प्रचलित अर्थ में है, सांकेतिक अर्थ में नहीं। जैसे वज्र साधना के क्रम में 'वज्र' शब्द एक अस्त्र-विशेष के लिए प्रयुक्त है जो लोहा का बना हो, सोलह अंगुल लम्बा हो और दोनों ओर त्रिशूल हो- ''अथ वज्रं साधयितु कामः पुष्पलौहमयं वज्रं कृत्वा षोडशांगुलं उभयत्रिशूलकं ++++++। किन्तु यह 'वज्र शब्द परवर्ती बौद्ध-तत्र में वज्रयान में पुरुष जननेन्द्रिय के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतः मंजुश्री की यह परम्परा प्राचीनतर प्रतीत होती है।
आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के प्रथम परिवर्त में ग्रन्थ की अवतरणिका के अनुसार भगवान्‌ बोधिसत्त्व एकबार आकाशतल में बोधिसत्त्वसन्निपातमण्डल में प्रतिष्ठित होकर देवपुत्रों को बुलाया और पृथ्वीलोक के वासियों के हितकारक मन्त्रों का उपदेश किया तथा अपने सबसे प्रिय पुत्रस्वरूप कुमार मंजुश्री को पृथ्वी लोक में इन मन्त्रों के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा। इनके साथ अनेक विद्याधर, सिद्ध, वज्रपाणि विद्याराज्ञी भी लोगों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर आये। यहाँ विद्याराज्ञी की जो सूची है, उसमें तारा, जया, विजया अजिता अपराजिता, भ्रमरी, भ्रामरी आदि देवी' के रूप में सनातन आगम-परम्परा में भी प्रतिष्ठित हुई।
इस तन्त्र में साधना के स्वरूप का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि सनातन परम्परा में आगम-शास्त्र की पद्धति के साथ इसकी पर्याप्त समानता है।
अथर्ववेद की साधना-परम्परा होमपरक है। विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए अथर्ववेद के मन्त्रों से विभिन्न औषधियों, हव्यपदार्थों से आहुति, मणिबन्धन, प्रतिसर बन्धन, अरिष्टाबन्धन आदि का विधान है। इस परम्परा में बीजाक्षरों का प्रयोग नहीं हुआ है। बीजाक्षर आगम-साधना पद्धति की विशेषता है। साथ ही, पूजा के साधन के रूप में पुष्प, अक्षत, चन्दन, नैवेद्य, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय ये सब भी वैदिक उपासना में प्रयुक्त न होकर आगमीय-पद्धति में प्रयुक्त हुए हैं।
इस आगम परम्परा का विकास कब हुआ, यह कहना कठिन है। वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड में भी कौशल्या द्वारा देवताओं की पूजा फूल चढ़ाकर करने का उल्लेख है। कालिदास ने 'अर्घ्य' का प्रयोग किया है। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में घोसुण्डी के नारायण-वाटिका शिलालेख में वासुदेव की पूजा उल्लेख है।
किन्तु मन्त्र में बीजाक्षर का प्रयोग सर्वप्रथम बौद्ध-परम्परा में दृष्टिगोचर होता है,, जिसे कालान्तर में आगम-परम्परा में स्वीकार किया गया। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में इन बीजाक्षरों का प्रचुर प्रयोग है- हूँ, रु, फट्‌, ट, निः, धु, धुर, भ्रां, क्रां, क्रीं आदि बीजाक्षरों से बने मन्त्रों के जप एवं हवन का विधान यहाँ किया गया है।
इस ग्रन्थ में पट-साधन का उल्लेख हुआ। पट पर बोधिसत्त्व, मंजुश्री, तारा, भ्रूकुटी, अवलोकितेश्वर, अप्सरा, नागराज, यमराज आदि का चित्र बनाकर उस पट की विधिवत्‌ विस्तृत पूजा कर उसे प्रतिष्ठित करने का विधान है। इस क्रम में चित्र निर्माण की विधि, रंग-निर्माण, चित्र बनाने योग्य पट का निर्माण तथा बोधिसत्त्व की विभिन्न मुद्राओं का वर्णन है। साथ ही, तारा आदि अंग देवता की भी मुद्राएँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हमें तारा के प्राचीन स्वरूप का दर्शन होता है जो दश महाविद्या की तारा से तो सर्वथा भिन्न है ही, बल्कि बौद्धों की तारा की जो प्राचीन मूर्तियाँ मिलती हैं उससे भी भिन्न है।

Tuesday, November 2, 2010

Tradition of Dipavali in Mithila

तीन प्रकारक जे रात्रि कालरात्रि, महारात्रि आ मोहरात्रि कहल गेल अछि ताहि में पहिल कालरात्रि दीपावली थिक। मिथिलामे ई गृहस्थक लेल महत्त्वपूर्ण अछि। आई जखनि बहुत मैथिल बन्धु बाहर रहैत छथि, बहुतो गोटे परम्परा सँ अनभिज्ञ छथि तखनि हुनका लोकनिक लेल एतए हम मिथिलाक परम्पराक उल्लेख करैत छी। परदेसमे एकर निर्वाह तँ कठिन अछि मुदा जानकारी अधलाह नहिं। बहुत विधि छैक जे कएल जा सकैत अछि।
मिथिलामे दीपावली कें सुखराती कहल जाईत अछि। सन्ध्याकाल गोसाउनिक पूजा कए दुआरि पर अरिपन दए चौखटि पर दीप जराओल जाइछ। दुआरिक वामाकात उनटल उखरि पर सूपमें पानक पात आ धान राखल जाइत अछि। पुरुष गण ऊक हाथ में लए दुआरि पर आबि ओ धान तीन बेर घरक भीतर छीटैत छथि आ कहैत छथिन :-
धन-धान्य लए लक्ष्मी घर जाउ, दारिद्र्य बहार होउ।'

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Where was the Mithila and the capital of King Janak

The site of ancient Mithila प्राचीन काल की मिथिला नगरी का स्थल-निर्धारण (जानकी-जन्मभूमि की खोज)  -भवनाथ झा मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहु...