Monday, October 4, 2010

A Maithily poem by Bhavanath Jha

सिँहार झरैत नहि अछि/

सिँहार झरैत नहि अछि/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले'/
भोर होइतहि/
ओ गुलाब नहि थिक जे तोड़निहारक हाथ/
रक्त-रंजित करत/
ओ गुलमोहर नहि थिक /
जकरा कारणे गाछक डारिए टुटत/
ओ निर्लज्ज, भ्रमरसेवी, पीतरस कमल नहि थिक /
जे रौद भेलो पर हँसैत अछि/
सिँहार तँ कली सँ फूल बनितहि झटकि के ओ चलि पड़ै-ए/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले' /
समर्पण, पूर्ण समर्पण/
देवता के प्रसन्न कए /
संसारक सुखक कामना सँ/
सिँहार झरैतनहि अछि/
भोर होएबा सँपहिनहि/
प्रयाण करैत अछि संसार ले'॥

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