एक अलौकिक अनुभव।
मैँ महावीर मन्दिर, पटना में प्रकाशन प्रभारी हूँ। यहाँ की पत्रिका 'धर्मायण' में आचार्य पृथ्वीधर कृत चण्डीस्तोत्र देने की
प्रबल इच्छा हुई। चूँकि यह हिन्दी पत्रिका है इसलिए उन 16 श्लोकों का अनुवाद आवश्यक था। मैं अनुवाद करने लगा। दूसरा ही श्लोक था :
यद्वारुणात्परमिदं जगदम्ब यत्ते बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम्।
यहाँ आकर अटक गया। मैं प्रथम शब्द में सन्धिविच्छेद करता था यत्+वारुणात् परं । वरुण को राजा कहा गया है। उस वरुण के राज्य से भी आगे का स्थान देवी का है यह अर्थ निकलता था। लेकिन आगे 'दहनाधिरूढ़म्' से संगति नहीं बैठती थी। मैं परेशान हो गया। कोई प्राचीन व्याख्या नहीं मिली। अन्त में उस श्लोक को छोड़कर आगे बढ़ गया। पत्रिका का पूरा कार्य हो गया, केवल एक श्लोक के अनुवाद के लिए छपने में विलम्ब हो रहा था। मैं समस्या में पड़ गया। पटना में संस्कृत के एक भारत विख्यात विद्वान् के सामने उसे रखा तो उनसे संस्कृत शिक्षा के प्रति सरकार के रबैया पर कुछ भाषण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला।
हमेशा उसी की चिन्ता सताने लगी। लगभग एक सप्ताह के बाद रात में मैँने स्वप्न देखा। आकाश में वह श्लोक लिखा हुआ चमक रहा था। थोड़ी देर के बाद पहला शब्द 'यद्वारुणात्परमिदम्' 'यत् वा अरुणात्' के रूप मेँ बिखर गया। फिर 'अरुणात्' गायब हो गया और उसकी जगह 'ह' चमकने लगा। मुझे संकेत मिल चुका था। मैं उठा और सुबह की प्रतीक्षा किए विना मैंने अनुवाद कर लिया। सम्पूर्ण श्लोक सांकेतिक भाषा में देवी के बीजमन्त्र का उल्लेख कर रहा था। इस स्वप्न को मैं आजतक भूला नहीं हूँ।
मैं जानता था कि तन्त्रशास्त्र में अरुण शब्द का प्रयोग 'ह' अक्षर के लिए होता है लेकिन ऐसा सन्धिविच्छेद! मैंने कभी नहीं सोचा था! वह आकाश में श्लोक का चमकना फिर शब्दों का अलग होना! क्या था? आज भी मैं सिहर जाता हूँ।