Friday, October 29, 2010

एक अलौकिक अनुभव

एक अलौकिक अनुभव।

मैँ महावीर मन्दिर, पटना में प्रकाशन प्रभारी हूँ। यहाँ की पत्रिका 'धर्मायण' में आचार्य पृथ्वीधर कृत चण्डीस्तोत्र देने की
प्रबल इच्छा हुई। चूँकि यह हिन्दी पत्रिका है इसलिए उन 16 श्लोकों का अनुवाद आवश्यक था। मैं अनुवाद करने लगा। दूसरा ही श्लोक था :
यद्वारुणात्परमिदं जगदम्ब यत्ते बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम्।
यहाँ आकर अटक गया। मैं प्रथम शब्द में सन्धिविच्छेद करता था यत्+वारुणात् परं । वरुण को राजा कहा गया है। उस वरुण के राज्य से भी आगे का स्थान देवी का है यह अर्थ निकलता था। लेकिन आगे 'दहनाधिरूढ़म्' से संगति नहीं बैठती थी। मैं परेशान हो गया। कोई प्राचीन व्याख्या नहीं मिली। अन्त में उस श्लोक को छोड़कर आगे बढ़ गया। पत्रिका का पूरा कार्य हो गया, केवल एक श्लोक के अनुवाद के लिए छपने में विलम्ब हो रहा था। मैं समस्या में पड़ गया। पटना में संस्कृत के एक भारत विख्यात विद्वान् के सामने उसे रखा तो उनसे संस्कृत शिक्षा के प्रति सरकार के रबैया पर कुछ भाषण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला।
हमेशा उसी की चिन्ता सताने लगी। लगभग एक सप्ताह के बाद रात में मैँने स्वप्न देखा। आकाश में वह श्लोक लिखा हुआ चमक रहा था। थोड़ी देर के बाद पहला शब्द 'यद्वारुणात्परमिदम्' 'यत् वा अरुणात्' के रूप मेँ बिखर गया। फिर 'अरुणात्' गायब हो गया और उसकी जगह 'ह' चमकने लगा। मुझे संकेत मिल चुका था। मैं उठा और सुबह की प्रतीक्षा किए विना मैंने अनुवाद कर लिया। सम्पूर्ण श्लोक सांकेतिक भाषा में देवी के बीजमन्त्र का उल्लेख कर रहा था। इस स्वप्न को मैं आजतक भूला नहीं हूँ।

मैं जानता था कि तन्त्रशास्त्र में अरुण शब्द का प्रयोग 'ह' अक्षर के लिए होता है लेकिन ऐसा सन्धिविच्छेद! मैंने कभी नहीं सोचा था! वह आकाश में श्लोक का चमकना फिर शब्दों का अलग होना! क्या था? आज भी मैं सिहर जाता हूँ।

Thursday, October 28, 2010

प्राचीन काल में शूद्रों की नि:शुल्क शिक्षा।

आज की राजनीति में सब कुछ सम्भव है। किसी ने कहा कि कौआ कान ले गया तो बस कौआ के पीछे दौड़ पड़े! जो लोग कहते हैँ कि प्राचीन भारत में शूद्रों को पढ़ने नहीँ दिया जाता था वे इस अंश को देखें :- आपस्तम्ब धर्मसूत्र में एक प्रसंग की विवेचना है कि शूद्रों से आचार्य शिक्षण शुल्क लें या न लें। आपस्तम्ब ने किसी आचार्य का मत दिया है कि 'शूद्र और उग्र से भी शुल्क लेना धर्म-सम्मत है।' सर्वदा शूद्रत उग्रतो वाचार्यार्थस्याहरणं धार्म्यमित्येके। (1 । 2 । 19) लेकिन आपस्तम्ब का मत है कि न लें। यानी निःशुल्क शिक्षा दें। अब कोई बतलायें कि यदि शूद्र को कोई पढ़ाते ही नहीं थे तो यह विवेचना ही क्यों? इस विवेचना का ही अर्थ है कि गुरुकुल में शूद्रों को भी पढ़ाया जाता था।

‎'डाक' का जन्मस्थान कहाँ था?

महान् ज्योतिषशास्त्री डाक मिथिला के थे। कुछ लोग उन्हें बंगाली सिद्ध करने में लगे हुए हैं तो कुछ घाघ के रूप में अवध क्षेत्र का मानते हैं। कुछ लोग भडरी के साथ जोड़कर राजस्थान को उनका जन्मस्थान मानते हैं।
म. म. हरपति के 'व्यवहार प्रदीप' मे डाक का एक वचन है जिसमे 12 राशियों का उदयमान दिया गया है। वह 6 अंगुल पलभा का उदयमान है। पलभा का सीधा सम्बन्ध अक्षांश से होता है। मिथिला की पलभा 6अंगुल है। इस गणित के प्रमाण से डाक मिथिला के सिद्ध होते हैं।
सभी मैथिल बन्धुओं से निवेदन है कि जहाँ जहाँ NET पर उन्हें अन्य स्थानीय माना गया है उसका खण्डन करें और डाक को मिथिला विभूति के रूप में प्रतिष्ठित करें। मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूँ।

Tuesday, October 26, 2010

Ramanandacharya the founder of 'Ramavat' cult was Saint Kabir's Guru.

अनन्तदास की 'कबीर परिचई'

कासी बसै जुलाहा ऐक। हरि भगतन की पकडी टेक॥
बहुत दिन साकत मैं गईया। अब हरि का गुण ले निरबहीया॥१॥
बिधनां बांणी बोलै यूं। बैषनौं बिनां न दरसण द्यूं॥
जे तूं माला तिलक बणांवै। तोर हमारा दरसण पावै॥२॥
मुसलमांन हमारी जाती। माला पांऊं कैसी भांती॥
भीतौ बांणी बोल्या ऐह। रांमांनंद पै दछ्‌या लेह॥३॥
रांमांनंद न दैषै मोही। कैसैं दछ्‌या पांऊं सोई॥
राति बसौ गैला मैं जाई। सेवग सहत वै निकसैं आई॥४॥
राति बस्यौ गैला मैं जाई। रांम कह्या अरु भेट्‌या पाई॥
जन कै हिरदै बढ्‌या उछावा। कबीर अपनैं घरि उठि आवा॥५॥
माला लीन्ही तिलक बणाया। कबीर करै संतन का भाया।
लोकजात्रा दरसण आवै। दास कबीर राम गुण गावै॥६॥
कुटंब सजन समधी मिल रोवैं। बिकल भयौ काहे घर षोवै॥
मका मदीना हमारा साजा। कलमां रोजा और निवाजा॥७॥
तब कबीर कै लागी झाला। माथै तिलक गुदी परि माला॥
रे कबीर तूं किन भरमाया। यह षांषंड कहां तैं ल्याया॥८॥
अपनी राह चल्यां गति होई। हींदू तुरक बूझि लै दोई॥
अचंभा भया सकल संसारा। रांमांनंद लग ई पुकारा॥९॥
मुसलमांन जुलाहा ऐक। हरि भगतन का परड्ढा भेष॥
किरषि करै उन हूं कूं देई। बूझ्‌यां नांव तुम्हारा लेई॥१०॥
तब रांमांनंद तुरत बुलाया। आगैं पीछैं परदा द्याया॥
रे कहि माला कब दीनी तोही। अब तूं नांव हमारा लेई॥११॥
हम राति बैसे गैला मैं जाई। सेवग सहत तुम निकसे आई॥
रांम कह्यां अरु पाऊ। हमैं कह्या अरु तुमहैं कहाऊ॥१२॥
तब हूं अपनैं घरि उठि आया। आंनंद मगन प्रेम रस पाया॥
रे यूं तौ रांम कहै सब कोई। ऐसी भांति न हरिजन होइ॥१३॥
गुर गोबिंद कृपा जौ होई। सतगुर मिलै न मुसकल कोई॥
सब आसांन सहज मैं होई। ऐसैं साध् कहैं सब कोई॥१४॥
परगट दरसन द्यौ गुसांई। नही देहौ तो मरिहूं कलपाई॥
नृमल भगति कबीर की चीन्हीं। परदा षोल्या दिछा दीन्हीं॥१५॥
भाग बडे रांमांनंद गुर पाया। जांमन मरन का भरम गमाया॥१६॥
रांमांनंद गुर पाईया, चीन्ह्यं ब्रह्म गियांन।
उपजी भगति कबीर कै, पाया पद नृबांन॥
रांमांनंद कौ सिष है, कबीर ता कौ संत।
भगति दिढांवण औतर्यौ, गावै दास अनंत॥

What are the features of religion?

धर्म किसे कहते हैं ?

धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति
धर्मेण पापमदनुपति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्‌ धर्मं परमं वदन्ति।
-तैत्तिरीय-आरण्यक १०/६३
सम्पूर्ण विश्व का आधार धर्म ही है। लोग संसार में कल्याण के लिए धर्मिक व्यक्ति के पास जाते हैं। धर्म से पाप का क्षय होता है। धर्म में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। इसलिए धर्म को सबसे बड़ा कहा गया है।

धर्मार्थकामाः किल जीवलोके समीक्षिताधर्मफलोदयेषु।
ये तत्र सर्वे स्युरसंशयं मे भार्येव, वश्याभिसता सपुत्रा ॥
-वाल्मीकिरामायण २/२१/५६
इस जीव-जगत में धर्म-पफल की प्राप्ति के अवसरों पर धर्म-अर्थ-काम ये सब निस्सन्देह जहाँ धर्म है वहाँ अवश्य प्राप्त होते हैं, जैसे पुत्रावती भार्या पति के अनुकूल रहकर सहायक होती है।

अनर्थेभ्यो न शक्नोति त्रातुं धर्मो निरर्थकः । -वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड ८३/१४
जो धर्म मानव की अनर्थों से रक्षा नहीं कर सकता, वह धर्म निरर्थक है।

अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोयं सार्ववर्णिकः ॥
-श्रीमद्‌भागवत ११/१७/२१
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अकाम, अक्रोध, अलोभ तथा सभी प्राणियों के प्रति हित की भावना- ये सभी वर्णों के धर्म हैं।

न धर्मफलमाप्नोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति।
यश्चैनं शंकते कृत्वा नास्तिक्यात्‌ पापचेतनः ॥

जो पाप से सशंक होकर धर्म करता है, उसे दुहना चाहता है, वह धर्मफल को प्राप्त नहीं कर सकता है।
-महाभारत वनपर्व ३१/६
न तत्परस्य संदध्यात्‌ प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात्‌ कामादन्यः प्रवर्तते ॥
-महाभारत उद्योगपर्व ३९/७२
जो अपने लिए प्रतिकूल हो वह दूसरे के लिए भी नहीं करना चाहिए, संक्षेपतः यही र्ध्म है।

अहिंसा सूनृता वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा।
वर्णिनां लिंगिनां चैव सामान्यो धर्म उच्यते।
-अग्निपुराण २३७/१० एवं कामन्दकीय नीतिसार २/३२
अहिंसा, मधुर वाणी, सत्य, शौच, दया और क्षमा संन्यासी तथा सामान्य व्यक्ति सभी के लिए सामान्य धर्म है।

Monday, October 25, 2010

स्वामी रामानन्दाचार्य ने मध्यकाल में समाज के बीच फैले भेद-भाव को मिटाने के लिए घोषणा की :- "जात पाँत पूछे नहि कोई हरि कौ भजै सो हरि सम होई"। उनके 12 प्रधान शिष्य हुए, जिनमेँ कबीर एवं रैदास मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन के स्तम्भ हैं। ऐसे स्वामी रामानन्दाचार्य ने श्रीराम की प्रार्थना करते हुए कहा " सुरासुरेन्द्रादिमनोमधुव्रतैर्निषेव्यमाणाङ्घ्रिसरोरुह प्रभो। असंख्यकल्याणगुणामृतोदधे सुरेश रामाद्भुतवीर्य मापते।" सामाजिक समता के वाहक रामान्दाचार्य के आराध्य श्रीराम हैं।

Saturday, October 23, 2010

सनातन धर्म मे श्रेष्ठता की चार कसौटी है: उम्र, विद्या,यश एवं बल। इन चारों मे से एक में भी आगे रहने पर वह व्यक्ति वंदनीय होता है। बौद्ध धर्म में श्रेष्ठता की कसौटी है:- प्रज्ञा, गुण,जाति एवं उम्र " तत्थ पञ्ञावुड्ढो गुणवुड्ढो जातिवुड्ढो वयोवुड्ढो ति चत्तारो वुड्ढा।" (सुत्तनिपात-अट्ठकथा : किंसीलसुत्तवण्णना) इसी जगह कहा गया है: "तथा दहरो पि राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो ब्राह्मणो वा सेसजनस्स वन्दनारहतो जातिवुड्ढो नाम।" यानी, छोटा भी यदि राजा क्षत्रिय है और उसका राजतिलक हुआ है या वह ब्राह्मण है तो शेष लोगों के लिए पूजनीय है इसे जाति की श्रेष्ठता कहते हैं।जो लोग सनातन धर्म पर कीचड़ उछालकर बौद्ध बनने जा रहे होँ उन्हें यह संदेश समर्पित...

Monday, October 18, 2010

बसहा बैल

बसहा बैल

दो हट्टे-कट्टे बैल जुते हैं एक गाड़ी में/
गाड़ी पर भी एक बैल ही बैठा/
मस्त मस्त पागुर करता हुआ/
आगे मे धूप-दीप/
सजी है थाल कोमल कोमल दूर्वा से/
बज रहे बाजे/
'जय जय भोले शंकर'/
थाल मे बरसते पैसे, केले, लड्डू, /
गेरुआ धारी दाढ़ीवाले की चमकती आँखें/
जुते बैल की भूखी-प्यासी ऐंठती जीह/
छिला हुआ कंधा/
देखने ठिठक जाता हूँ/
फिर दिखाई देता है एक कूबर उठा हुआ/
गाड़ी में बैठे बैल की गरदन पर/
फूलमाला से सजा हुआ/
तभी बैलोँ पर एक डंडा चल जाता है/
बैल चुपचाप चल पड़ते हैं/
'जय भोलेनाथ'

Thursday, October 14, 2010

THE BIRTH-SONG "Sohar" in Mithila

बच्चाक जन्मक अवसर पर मिथिला में सोहर गीत गाओल जाइत अछि। 'सोहर' शब्दक मूल संस्कृत 'शोकहर' अर्थात् प्रसव-पीडा के मेटओनिहार थिक। एहि गीत सभमें बच्चाक जन्मके देवी-देवताक सँ जोड़ल जाइत अछि। मध्यकालमेँ जखनि निरगुनियाँ सन्त मानव-जन्मकेँ शोकक कारण मानि संन्यास के महिमा-मण्डित करए लगलाह तखनि मिथिला मेँ विवाह आ बच्चाक जन्मकेँ पावन अवसर मानल गेल। 'सोहर' शब्दमे जे ई दार्शनिक भाव अछि से 'बधैया' मेँ नहि अछि।बधैयामे चारण आ भाँटक संस्कृतिक भावना अछि। मिथिलामे ई पमरियाक परम्परा पृथक् अछि। मिथिलाक संस्कृति बेटीक जन्मके 'भगवतीक आगमन' मानैत अछि आ बेटाक जन्मके कृष्ण आ रामक अवतार। बच्चाक माय एतए देवकी, यशोदा आ कौशल्याक रूपमे पूजित होइत छथि।

Wednesday, October 13, 2010




ये कहाँ के यात्री हैं?

मैं पटना रेलवे स्टेशन पर लगभग दो घंटे से खड़ा था. जिस ट्रेन से मुझे जाना था वह पिछले स्टेशन पर ही रोक दी गयी थी. मैंने सीढियों के नीचे अस्वेस्तेस पर कुछ बच्चों को देखा. सबकी उम्र १०-१२ वर्ष रही होगी. सब कपडे को मुट्ठी में भरकर उसे चूस रहे थे. मुझे अचरज लगा.
थोड़ी देर के बाद एक और लड़का आया. उसकी उम्र लगभग २०-२२ रही होगी. उसके आते ही सभी लेटे हुए बच्चे बैठ गए और कुछ कहने लगे. उस लडके ने उन्हें डांटा और अपनी जेब से एक सीसी निकालकर उन्हें थमा दी. जिस कपडे को वे लडके चूस रहे थे उस कपडे को खोलकर सीसी में से थोड़ी सी दवा कपड़े पर डालकर फिर वैसे ही चूसने लगे. वह लड़का फिर चला गया.
सभी छोटे लडके थोड़ी ही देर में सो गए. एक लडके के हाथ में सीसी रह गयी, जिसे मैंने गौर से देखा. मैं उपर ओवरब्रिज पर था. काफी दूरी थी इसलिए उस दवा का नाम मैं नहीं पढ़ सका. जिस तरह whitener की सीसी होती है वैसी ही सीसी थी और अन्दर की दवा भी ठीक वैसी ही थी. लेकिन वह whitener नही थी. कागज पर काले अक्षर में लिखा हुआ था लेकिन दवा का नाम लाल अक्षरों में था. क्या था वह? वह नशीली दवा तो थी ही!
सभी १०-१२ साल के मासूम बच्चे सोये हुए थे या बेहोश थे कौन जाने? नीचे प्लेटफार्म पर यात्री आ-जा रहे थे. मेरी ट्रेन भी अब आनेवाली थी. मेरे बगल में मेरा भी १०-१२ साल का बेटा था. मैंने उसे पकड़ लिया. शायद कुछ झकझोडकर. मेरे हाथों में एक व्यग्रता थी. मन में तूफ़ान-सा था. मेरे बेटे ने शायद समझा हो कि ट्रेन आ जाने के कारण मैंने उसे इस तरह झकझोड़ दिया है.
मैं ट्रेन में बैठ गया. सोचता हूँ कि सब बैठ गए होंगे. पर वे लडके? उन्हें कहाँ जाना था???

Monday, October 4, 2010

A Hindi poetry by Bhavanath Jha

तनहाई

वह कैसी तनहाई!
दुनिया की नजर में जश्ऩ मेँ डूबा हो कोई!
साथी को कंधे पर ढोता हुआ फूलोँ-भरी वादियोँ सैर करे!
तन्हा नहीँ है वह?
सिर्फ अहसास होता है दूसरे के वजूद का,
जब कंधे का घट्ठा कभी कभी दर्द देने लग जाता हो!

यह कैसी तन्हाई!/
घने जंगल में साथ चलते चलते/
सारे साथी अपनी अपनी राह पकड़ लेते हैं/
कोई नहीं कह सकता कि कौन भटक गया है/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है/
वरना अपनी राह पर भी /
वही चिड़ियों का चहचहाना, हवा का सरपट दौड़ना.../
सब कुछ काफी है तन्हाई तोड़ने के लिए/
हवा, पानी, सूरज, चाँद, तारे, /
फूलोँ भरी झूमती डालें/
लोरी से मार्शिया तक गाती चिड़ियाँ /
कलकल जल से मुखरित झरने/
तन्हाई तोड़ते हैं/
मैं अकेला नहीं होता हूँ/
जो मान लेता है अपना भटक जाना/
सिर्फ वही तन्हा हो जाता है॥

A Maithily poem by Bhavanath Jha

सिँहार झरैत नहि अछि/

सिँहार झरैत नहि अछि/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले'/
भोर होइतहि/
ओ गुलाब नहि थिक जे तोड़निहारक हाथ/
रक्त-रंजित करत/
ओ गुलमोहर नहि थिक /
जकरा कारणे गाछक डारिए टुटत/
ओ निर्लज्ज, भ्रमरसेवी, पीतरस कमल नहि थिक /
जे रौद भेलो पर हँसैत अछि/
सिँहार तँ कली सँ फूल बनितहि झटकि के ओ चलि पड़ै-ए/
आकाश सँ स्वयं उतरि जाइछ धरती पर/
चलि पड़ैत अछि देवताक माथ पर चढ़बा ले' /
समर्पण, पूर्ण समर्पण/
देवता के प्रसन्न कए /
संसारक सुखक कामना सँ/
सिँहार झरैतनहि अछि/
भोर होएबा सँपहिनहि/
प्रयाण करैत अछि संसार ले'॥

Where was the Mithila and the capital of King Janak

The site of ancient Mithila प्राचीन काल की मिथिला नगरी का स्थल-निर्धारण (जानकी-जन्मभूमि की खोज)  -भवनाथ झा मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहु...