Tuesday, September 21, 2010

Oblations offerd to the forefathers at Gaya and its old tradition.

गया के पितृपक्ष मेला की प्राचीन परम्परा

प० भवनाथ झा
सनातन धर्म में माता-पिता के प्रति पुत्र के कर्तव्यों के सन्दर्भ में परम्परा रही है कि जब तक माता-पिता जीवित रहें, तब तक उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए, मृत्यु हो जाने पर मृत्यु की तिथि में ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए तथा गया जाकर पिण्डदान करना चाहिए। इन तीन कर्तव्यों का पालन करनेवाला पुत्र वास्तविक पुत्र कहलाता है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ 'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है कि पिता अपने ऊपर के तीनों ऋणों को पुत्र के ऊपर सौंपकर मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है। ये तीन ऋण हैं- लौकिक ऋण, देवऋण और पितृ ऋण। किसी व्यक्ति से लिया गया कर्ज लौकिक ऋण है। यदि कर्जदार की अचानक मृत्यु हो जाए तो उसका पुत्रा जिस प्रकार कर्ज लौटाता है, उसी प्रकार पिता के अध्ूारे धार्मिक और पितर-सम्बन्धी कर्तव्यों का पालन कर अपने माता-पिता को ऋण से मुक्त कर मोक्ष का अधिकारी बनाता है। यह अवधारणा वैदिक काल से चली आ रही है और प्रत्येक पुत्र को अपने पिता के साथ लौकिक एवं अलौकिक बंधन से जोड़ता है। यह श्रृंखला 'प्रजा-तन्तु' कही गयी है, जिसे नहीं तोड ने का उपदेश तैत्तिरीयोपनिषद्‌ में दिया गया है।

पितृ ऋण से मुक्त होने के सन्दर्भ में गया में पिण्डदान देना भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड में भरत को उपदेश देते हुए राम कहते हैं कि बडे नामी और समझदार राजा गय ने जैसे गया में यज्ञ करते हुए पितरों को एक कहावत सुनाई थी कि बेटा तो 'पुत्‌' नामक नरक से पिता को बचा निकाल लेता है इसीलिए वह पुत्र कहलाता है, इसीलिए बेटा वही सच्चा है, जो पितरों को सब ओर से बचाए रखे। सब चाहते हैं कि हमारे बहुत अच्छे पढे लिखे बेटे हों जिनमें से कोई तो 'गया' जाएगा।

आनन्द-रामायण के यात्राकाण्ड के छठे सर्ग में श्रीराम द्वारा प्रेतशिला पर पिता के निमित्त पिण्डदान करते समय अपनी अंगूठी से तीन रेखा खींचने का उल्लेख हुआ है। बाद में राम ने प्रेत पर्वत पर काकबलि (कौओं को भोजन देना) दी, वहाँ से धर्मवन गये, फिर एकोनपद स्थान में पायस तथा जौ के सत्तू के पिण्ड दिये। फिर वटश्राद्ध सम्पादित कर गदाधर भगवान्‌ का दर्शन किया। इसके बाद आम के वृक्षों में पितर की तृप्ति के लिए जल दिया। प्रतिदिन विष्णुपद की पूजा करते हुए एक वर्ष तक रहे। जिस स्थान पर उनका विमान था वह रामगया के नाम से विख्‌यात है।
केवल अपने माता-पिता के जल देने, पिण्डदान कर देने से यह कर्म पूरा नहीं होता है, बल्कि दादा, दादी, नाना, नानी आदि सभी पूर्वजों के लिए, साथ ही अपने पूर्वजों के नौकर, नौकरानी, मित्र, सहायक आदि जो भी रहे हों, सब हमारे लिए उतने ही आदरणीय हैं। उनके लिए भी जल देना, पिण्डदान करना हमारा कर्तव्य बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को उनकी क्षय-तिथि पर जल देने की परम्परा रही है, किन्तु यदि इन सभी पूर्वजों की क्षयतिथि मालूम न रहे, तो पड़िबा से अमावस्या तक पूरे पन्द्रह दिनों तक यदि पितरों के प्रति कर्म सम्पन्न किया जाए तो सब की क्षय तिथि इन्हीं पन्द्रह तिथियों में पडने के कारण कर्म को पूरा मान लेने की अवधारणा प्राचीन काल से चली आ रही है।

इस प्रकार आश्विन मास के कृष्णपक्ष में अपने पूर्वजों को प्रतिदिन जल दिया जाता है। अतः जिनके पिता की मृत्यु हो चुकी है उन्हें कुश हाथ में लेकर दक्षिण मुख होकर पूर्वजों का स्मरण करते हुए उन्हें जल देना चाहिए। यही पूरा पक्ष 'पितृपक्ष' कहलाता है। मान्यता यह रही है कि हमारे पूर्वज अपने-अपने पूर्वजों के प्रति कर्म करने गया पधारते हैं, अतः 'पितृपक्ष' में गया जाकर तर्पण करना और पिण्डदान करना श्रेष्ठ माना गया है। गया के इस धार्मिक अनुष्ठानों में पिण्डदान और तर्पण प्राचीनतम हैं। इनमें जौ के आटे का पिण्ड तथा कभी-कभी भात का भी पिण्ड दिया जाता है। अपने पूर्वजों का नाम लेकर उनका आवाहन कर उनकी स्तुति की जाती है तथा उनसे अपनी समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। इन स्तुतियों में माता के प्रति जो 'मातृषोडशी' (सोलह मन्त्रों की स्तुति) की जाती है वह विलक्षण है। इनमें से एक है कि हे माँ! जब मैं तुम्हारे गर्भ में था, तब जो तुम्हें शारीरिक पीड़ा हुई थी, उसके लिए यह पिण्ड समर्पित कर रहा हूँ।

ये धार्मिक कृत्य फल्गु नदी, प्रेतशिला, रामशिला, आदि अनेक स्थानों पर सम्पन्न होते हैं। यद्यपि इन्हें सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी यहाँ के पण्डों पर होती है, किन्तु शास्त्रीय विधानों के अनुसार शुद्धतापूर्वक अनुष्ठान सम्पन्न कराने की योग्यता रखनेवाले पण्डे विरले ही होंगे। साथ ही, इनकी पहली नजर तो दान और दक्षिणा पर रहती है, जिसके लिए अधिक से अधिक यजमान को पकड़ने की प्रवृत्ति रहती है, अतः इनके पास समय का भी अभाव रहता है। आज ये पण्डे महज 'दान-पात्र' बन गये हैं। फलतः इस तीर्थ की प्राचीन गरिमा और पितृ-पूजा की वैदिक परम्परा विलुप्त होती चली जा रही है। जो यजमान गम्भीरतापूर्वक गया-कृत्य शास्त्रीय विध्ि से सम्पन्न कराना चाहते हैं, उन्हें अपने साथ योग्य पुरोहित ले जाना पड ता है।

पितृपक्ष प्रारम्भ होते ही इन पण्डों का 'नेटवर्क' सक्रिय हो जाता है। विभिन्न प्रमुख रेलवे स्टेशनों एवं बस अड्‌डों पर इनके 'दलाल' घूमते रहते हैं, जो गया जाने वाले यात्रियों को पण्डों का नाम पता देकर भेजते हैं। गया स्टेशन पर तो यात्रियों के साथ पण्डे तथा उनके आदमी जबरदस्ती पर उतर आते हैं, इन सबसे गया की धार्मिक गरिमा विलुप्त होती जा रही है, जो चिन्तनीय है।

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