Tuesday, September 18, 2018

Where was the Mithila and the capital of King Janak


The site of ancient Mithila

प्राचीन काल की मिथिला नगरी का स्थल-निर्धारण
(जानकी-जन्मभूमि की खोज) 

-भवनाथ झा

मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहुत कोमल है और यहाँ बाढ के कारण बहुत तबाही हुई है। पहाड नहीं होने के कारण कच्ची मिट्टी, लकड़ी घास-फूस से यहाँ घर बनाने की परम्परा रही है अतः यहाँ अधिक पुराने अवशेष पुरातात्त्विक साक्ष्य के रूप में मिलना असंभव है। अतः किसी स्थान के निर्धारण के लिए हमे साहित्यिक स्रोतों और किसी स्थान के प्रति लोगों की श्रद्धा को ही स्रोत मानने की मजबूरी है। ये दोनों स्रोत जहाँ एक दूसरे से मेल खाते हैं उसे ऐतिहासिक साक्ष्य माना जा सकता है। सीता के जन्मस्थान के निर्धारण के विषय में भी यहीं स्थिति है। इनमें से साहित्यिक स्रोत विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। राजा जनक की पुत्री जानकी का जन्म मिथिला में हुआ था इस तथ्य पर कोई मतभेद नहीं है। वाल्मीकि रामायण से लेकर जहाँ कहीं भी सीता के जन्म का उल्लेख हुआ है, मिथिला का उल्लेख हुआ है। प्राचीन साहित्यों में मिथिला का उल्लख दो प्रकार से मिलता है
· राजधानी के रूप में
· पूरे राष्ट्र के रूप में।
बौद्ध पाली ग्रन्थों में विदेह में मिथिला की अवस्थिति मानी गयी है-
· अथ खो उत्तरो माणवो सत्तन्‍नं मासानं अच्‍चयेन विदेहेसु येनमिथिला तेन चारिकं पक्‍कामि। (ब्रह्मायु सुत्त)
· मिथिला च विदेहानं, चम्पा अङ्गेसु मापिता।
बाराणसी च कासीनं, एते गोविन्दमापिताति॥ (महागोविन्द सुत्त)
यहाँ स्पष्ट रूप से मिथिला एक क्षेत्र का नाम है, जो राजधानी थी। पूरे राष्ट्र के रूप में मिथिला का उल्लेख 1000 वर्ष से पुराना नहीं है।
इस प्रकार, सीता के जन्मस्थान मिथिला का उल्लेख जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, तो हमें मानना होगा कि यह मिथिला विदेह राज्य की राजधानी थी।
यह मिथिला कहाँ थी, इसके निर्धारण के क्रम में विद्वानों ने अनेक तर्क प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि रामायण में मिथिला की अवस्थिति का एक ही साक्ष्य है जिसमें कहा गया है कि गंगा और सोन के संगम पर नदी पार कर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ विशाला नामक नगरी पहुँचे और वहाँ से पहले मिथिला गये। इसका उल्लेख वाल्मीकि-रामायण के बालकाण्ड के 49वें अध्याय के अन्त में इस प्रकार है-
रामं संपूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपः ।। 21 ।।
रामो ऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः ।
सकाशाद्विधिवत्प्राप्य जगाम मिथिलां ततः ।। 22 ।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे बालकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः
अर्थात् गौतम ऋषि ने श्रीराम का सत्कार किया और श्रीराम ने भी गौतम की पूजा की और तब मिथिला गये। यहीं पर सर्ग की समाप्त हो जाता है। अहल्यास्थान से मिथिला की दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।
अगले सर्ग के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि मिथिला से चलकर उत्तर-पूर्व कोण की ओर चलकर राजा जनक की यज्ञ-स्थली पर पहुँचे।
ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह ।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् ।। 1.50.1 ।।
अर्थात् इसके बाद पूर्वोत्तर दिशा की और यज्ञस्थल पर पहुँचे। इसका अर्थ है कि यज्ञस्थल मिथिला से पूर्वोत्तर-कोण में अवस्थित था। फलतः इस प्रसंग से हमें मिथिला के स्थान निर्धारण में कोई सहायता नहीं मिलती है।
वाल्मीकि रामायण में मिथिला के उपवन मेंं ही अहल्या का आश्रम बतलाया गया है। तथा वैशाली से मिथिला की और प्रस्थान करते समय दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।
उष्य तत्र निशामेकां जग्मुतुर्मिथिलां ततः ।
तां दृष्ट्वा मुनयस्सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् ।। 10 ।।
साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन् ।
मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः ।। 11 ।।
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम् ।
श्रीमदाश्रमसङ्काशं किं न्विदं मुनिवर्जितम् ।। 12 ।।
अर्थात् वैशाली में एक रात्रि बिताकर मिथिला गये। सभी मुनियों को जनक की पुरी देखकर आश्चर्य हुआ। इन्होंने साधु, साधु कहकर इस नगरी की प्रशंसा की। इसी मिथिला के समीप वन में एक प्राचीन आश्रम देखा। वहीं आश्रम गौतमाश्रम था, जो वर्तमान में दरभंगा जिला में अहल्या-स्थान है।
वैशाली से मिथिला की दिशा निर्धारित करने में हमें ह्वेन्त्सांग के दृत्तान्त से काफी सहायता मिलती है। ईसा की 7वीं शती में ह्वेन्त्सांग ने भी एक मार्ग का उल्लेख किया है। ह्वेन्त्सांग के यात्रावृत्तान्त में केसरिया का स्तूप स्पष्ट है, जहाँ से 80-90 ली (27-30 कि.मी.) दक्षिण श्वेतपुर अवस्थित है। इस श्वेतपुर से उत्तरपूर्व दिशा में 500 ली ( 166 कि.मी.) पर वज्जि देश है। ह्वेन्त्सांग के अनुसार यही तीह-लो है जिसे तीरभुक्ति अथवा तिरहुत कहा गया है। सी-यु-कि के अंग्रेजी अनुवादक सैम्युअल बील ने लिखा है-
The symbols Tieh-lo probably represent Tirabhukti, the present Tirhut, the old land of the Vrijjis.
वर्तमान में श्वेतपुर महाविहार को चेचर के आनन्द-स्तूप से जोडा जाता है, जहाँ से 166 कि.मी. उत्तर-पूर्व की ओर मिथिला नगरी की अवस्थिति होनी चाहिए। साथ ही, वहाँ से 4000 ली. (1333 कि.मी.) दूरी पर नेपाल की अवस्थिति मानी गयी है, जहाँ पहुँचने के लिए हिमालय की कुछ घाटियों को भी पार करने का उल्लेख है।
इस प्रकार काठमाण्डू और हाजीपुर के बीच काठमाण्डू से 1333 किमी.मी. दक्षिण-पश्चिम कोण में तथा हाजीपुर से 166 कि.मी. उत्तर-पूर्व कोणमे प्राचीन मिथिला नगरी की अवस्थिति रही होगी।
इतना उल्लेख होने के बाद भी हम इन साक्ष्यों के आधार पर मिथिला नगरी की वास्तविक अवस्थिति नहीं जान सकते हैं। इसके लिए हमें अन्य साक्ष्य की सहायता लेनी होगी। इसके लिए हमें स्थान के नामकरण की परम्परा का एक साक्ष्य मिलता है। मिथिला नगरी दिल्ली सल्तनत के काल से मुगलकाल तक महला महाल (परगना) के रूप मे संरक्षित रही। इस महला का उल्लेख अबुल फजल ने भी तिरहुत के महालों में किया है, जिसका क्षेत्रफल उन्होंने 15,295 बीघा माना है। यह महला परगना बाद मे मिहिला के नाम से भी जाना गया, जो मिथिला का फारसीकृत रूप है। चूँकि यह केवल 15,295 बीघे का एक भूखण्ड है, अतः इस क्षेत्र में जनकपुर (नेपाल) को मानना भ्रम मात्र है।
वस्तुतः मिथिला के लिए मिहिला शब्द प्राकृत भाषा की देन है। जिनप्रभसूरि ने तीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में 14वीं शती में मिथिला के लिए मिहिला शब्द का प्रयोग किया है।
इसी मिहिला परगना मे वर्तमान सीतामढी एक स्थान है। सीतामढ़ी नामकरण 19वीं शती में हुआ है, अतः इससे प्राचीन साहित्य मे इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में यह नाम पर्याप्त प्रचलित है, जिसे सीता की जन्मभूमि माना गया है।
महाकवि विद्यापति ने भी भूपरिक्रमणम् नामक ग्रन्थ में जनक के देश का विवरण दिया है, जिसका मूल हिन्दी अनुवाद के साथ इस प्रकार है-
अथान्तरे बलदेवो हि नरहरिनामदेशकम्।
परित्यज्यैव गतवान् देशं पाटलिसंज्ञकम्।।
तत्र देवीं पूजयित्वा दृष्ट्वा नगरशोभनम्।
गंगामुत्तीर्य गतवान् गंगागण्डकसंगमम्।।
इसके बाद बलराम नरहरि नामक देश को छोडकर पाटलि नामक देश पहुँचे जहाँ उन्होंने देवी की पूजा कर नगर की शोभा देखी और गंगा को पार कर गंगागण्डक के संगम पर पहुँचे।
तत्र स्नात्वा तर्पयित्वा तीरभुक्तिं विहाय च।
जनकदेशं गतवान् सहितो मुनिना नृप।।
अष्टरात्रं तत्रोवास नानातीर्थं चकार ह।
हे राजन्, वहाँ स्नान एवं तर्पण कर तीरभुक्ति को छोडकर मुनि के साथ जनक देश गये, वहाँ आठ रात्रि रहे और अनेक तीर्थों का निर्माण किया।
द्वाविंशतियोजनमितः सहस्रग्रामसंयुतः।।
प्रायो ह्युदारा हि नरा नीचयोनिषु सम्भवाः।
यह जनक देश का परिमाण 22 योजन है और वहाँ हजार गाँव हैं। यहाँ निम्न कुल वाले भी लोग उदार होते हैं।
जनकपुरदक्षिणांशे सप्तक्रोशव्यतिक्रमे।।
डिजगलमहाग्रामे गेहास्तु जनकस्य च।
(प) यमुना सरितां श्रेष्ठा सदा वहति वेगगा।।
जनकपुर के दक्षिण में सात कोस की दूरी पर डिजगल नामक विशाल गाँव है, जहाँ जनक की वासभूमि है। वहाँ नदियों में श्रेष्ठ, सदा वेग वाली यमुना (जमुनी नदी) बहती है।
डिजगलदक्षिणे भागे योजनार्द्धव्यतिक्रमे।
गिरिजासंज्ञको ग्रामो विश्रुतो देशवासिभिः।।
प्राचीनमन्दिरं तत्र पुष्करिणीद्वयान्तरे।
भैरवस्थानं च गतवान् बलदेवो मुनिना सह।।
पूजयित्वा भैरवं च गतवान् सीतामण्डपम्।
विवाहो हि पुरा जातो यत्र सीतायाः ग्रन्थिबन्धनम्।।
डिजगल गाँव के दक्षिण भाग मे आधा योजन (दो कोस) की दूरी पर गिरिजा नामक गाँव है जो देशवासियों में विख्यात है। वहाँ दो तालाबों के बीच एक प्राचीन मन्दिर है। बलराम मुनि के साथ भैरवस्थान भी गये। वहाँ भैरव की पूजा कर सीता मण्डप भी गये, जहाँ प्राचीन काल में सीता का विवाह हुआ था और गाँठ बाँधी गयी थी।
सीताकुण्डदक्षिणांशे क्रोशत्रयव्यतिक्रमे।
चण्डीस्थानं च तत्रैव जागर्ति यत्र देविका।।
सीताकुण्ड के दक्षिण में तीन कोस की दूरी पर चण्डीस्थान है, जहाँ देवी हमेशा जागृत रहती है।
सीताकुण्डदक्षिणांशे सुरशास्ये तु भूपते।
सुरस्थाने दक्षभागे सप्तक्रोशव्यतिक्रमे।।
धनुषग्रामो महीपाल विपिनान्तरमेव हि।
परशुरामकुण्डं महाग्राम आहीराणां निवासभूः।।
गोरसं बहुलं तत्र ग्रामीणाः संवसन्ति हि।
हे राजन् (देवसिंह) सीताकुण्ड के दक्षिण में देवताओं के द्वारा शासन करने योग्य स्थान सुरस्थान है, जिसके दक्षिण में सात कोस की दूरी पर धनुषग्राम है। वन पार करने के बाद तुरत ही एक विशाल गाँव में परशुराम कुण्ड है। इस गाँव में अहीर लोग रहते हैं। वहाँ गोरस बहुत मात्रा में मिलती है और गाँ में बहुत लोग रहते हैं।
गिरिजादक्षिणे भागे पंचक्रोशव्यतिक्रमे।।
आहारीग्रामो महाग्रामो गोतमकुण्डस्य सन्निधौ।
अहल्यावटश्च पूजितः ह्रस्वा नदीषु विश्रुता।।
कमलानदी नाति दूरे चाहारीपत्तनस्य (च)।
गिरिजा गाँव के दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर आहारी नामक विशाल गाँव गोतमकुण्ड के समीप है। यहाँ अहल्यावट पूजित है और ह्रस्वा नामक नदी भी प्रसिद्ध है। इस आहारी पत्तन से कमला नदी अधिक दूर नहीं है।
जनकपुरो दक्षिणे च पंचक्रोशव्यतिक्रमे।
विशोरो हि महाग्रामः तत्रैव बहिः स्थितः।।
जनकपुर से दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर विशोर नामक विशाल गाँव है, जहाँ बलराम गाँव के बाहर ठहरे।
पंचक्रोशव्यत्यये च अरगाजापुकुण्डं चैव।
तत्रैव हि विख्यातं दशरथकुण्डमेव च।।
दशरथकुण्डे च गंगासागरकुण्डके।
जलेश्वरो महादेवः प्राचीनमन्त्रतः सदा।।
जलेशयं च परित्यज्य प्रविष्टो जलान्तरे।
वहाँ से पाँच कोस की दूरी पर अरगाजापु नामक कुण्ड है। वहीं पर दशरथ कुण्ड भी विख्यात है। वहाँ दशरथ कुण्ड एवं गंगासागरकुण्ड में जलेश्वर महादेव प्राचीन पद्धति से पूजित हैं जो एक कुण्ड के जल को छोडकर दूसरे कुण्ड के जल में प्रविष्ट हो गये।
(सम्पूज्य बलदेवो हि) मन्दिरदेवं निमीलितम्।
चकार सतीर्थवृद्धमुनिना सहितो मुदा।।
बलराम अपने समवयस्कों, वृद्धों एवं मुनियों के साथ इनकी पूजा की तथा मन्दिर में देवता को बन्द किया अर्थात् मन्दिर का निर्माण किया।
रात्रिकाले गौतमकुण्डे त्रिकालज्ञो मुनिर्महान्।
अलसकथां च हलिने श्रावयामास वै पुरा।।
निःक्षिप्य चान्यवार्त्तायां श्रमनिवारणहेतवे।
रात्रि में गौतम कुण्ड के पास त्रिकालदर्शी मुनि ने बलराम को अलस की कथा कही और परिश्रम को दूर करने के लिए दूसरी बातें भी की।
इस विस्तृत विवरण में जनकपुर, सुरस्थान, आहारीग्राम, गौतमकुण्ड, इतने स्थान आज भी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन गिरिजास्थान का निर्धारण भी सुगम हो जाता है, क्योंकि उसी के समीप भैरवस्थान का उल्लेख है। वर्तमा में यह भैरव स्थान सीतामढी के पास कोदरिया गाँव में है, जिसका उल्लेख कनिंघम ने भी किया है। यदि विद्यापति के वर्णन को हम कनिंघम द्वारा दिये गये वर्णन के आलोक में देखते हैं तो स्पष्ट है कि भैरव मन्दिर गिरिजा नामक गाँव में है, जहाँ से दो कोस उत्तर डिगजल गाँवमें जनक का राजमहल है। इसका अर्थ यह है कि विद्यापति के काल में सीतामढी का ही दूसरा नाम गिरिजा गाँव था। वर्तमान में फुलहर के पास जो गिरिजा स्थान है, वह मन्दिर का नाम है, गाँव का नहीं। वह स्थान पुष्पवाटिका से सम्बद्ध है, जन्मस्थान से नहीं।
जनकपुर से सात कोस दक्षिण मे एवं गिरिजास्थान से दो कोस उत्तर जनक के राजमहल का उल्लेख है, जहाँ जमुनी नदी का प्रवाह कहा गया है। और इसी गिरिजास्थान से पाँच कोस दक्षिण में गोतम कुण्ड के समीप आहारी ग्राम है, जहाँ अहल्यावट है, ह्रस्वा नदी भी तथा कमला नदीं भी अधिक दूर पर नहीं बहती है। इस प्रकार आहारी गाँव (अहियारी) से सात कोस उत्तर 12 कोस पर जनकपुर की अवस्थित मानी गयी है, किन्तु डिजगल गाँव में राजा जनक का महल कहा गया है।
यहाँ वर्णन के अनुसार आहारी पत्तन यानी अहियारी गाँव के उत्तर एक घना जंगल जिसके उत्तर धनुष ग्राम है। साथ ही इस धनुषग्राम से पाँच कोस उत्तर सुरस्थान माना गया है, जिसे वर्तमान सुरसंड कहा जा सकता है।
इस प्रकार विद्यापति ने गिरिजा स्थान से लेकर सुरसंड, जलेश्वर तथा दक्षिण में अहियारी से कुछ उत्तर धनुषग्राम के बीच सीता से सम्बद्ध सभी स्थानों का वर्णन किया है। जनकपुर का उल्लेख तो है, किन्तु वहाँ किसी भी तीर्थस्थल का उल्लेख नहीं है। वहाँ से सात कोस दक्षिण में अवस्थित डिजगल नामक गाँव से दक्षिण ही सारे स्थानों का उल्लेख उन्होंने किया है।
मिथिला के शासक हरिसिंह देव के काल में मिथिला शब्द का प्रयोग सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए मिलता है। चण्डेश्वर ने अपने कृत्यरत्नाकर में लिखा है-
अस्ति श्रीहरिसिंहदेवनृपतिर्निःशेषविद्वेषिणां
निर्माथी मिथिलां प्रशासदखिलां कर्णाटवंशोद्भवः।।
इसी काल में मिथिला जो प्राचीन राजधानी थी अज्ञात हुई और एक छोटे क्षेत्र के रूप में सिमट गयी। सम्भवतः यह मिहिला महाल अथवा परगना के रूप में सिमटकर केवल भूमि सम्बन्धी रिकार्ड रखने के लिए प्रयोग में आ गयी। इसी रूप में 1559 ई. मे अबुल फजल ने आइन-ए अकबरी में महला नामक एक महाल सूबा ए तिरहुत के अन्तर्गत माना है।
इसीलिए कनिंघम मे पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के दौरान सीतामढी का ही दूसरा नाममहिला मान लिया है। इस सीतामढी में भी मुख्य जन्मस्थान से सम्बद्ध दो मान्यताएँ हैं, जिनका उल्लेख A Statistical Account of Bengal, Volume 13 मे Sir William Wilson Hunter (1877 ई. मे प्रकाशित) ने किया है।

Sitamadhi is situated on the west bank of the river Lakhandai, in latitude 26° 35′, and longitude 85° 32′. … A large fair takes place in the month of Chaitra, the principal day being the 9th of the Sukal Pakhsh, commonly called the Ramnami, the day on which Rama is said to have been born in Oudh. The meld begins four or five days before, and lasts for a fortnight, being attended by people from very great distances. All kinds of goods are sold, Sewan pottery being the most noteworthy. A few elephants and horses are sold; but the fair is principally famous for the large number of bullocks which are bought, Sitamarhi bullocks being supposed to be an especially good breed. It was at Sitamarhi that Raja Janak, when ploughing his field, drove his ploughshare into an earthen pot. Out of this sprang up the lovely Janaki or Sita, whose life is described in the Ramayana. The tank where she is said to have arisen is still pointed out; but the honour is also claimed by another place, Panaura. Nine temples, five of which are in the same compound as that of Sita, are dedicated to Sita, Hanuman, Siva, and Dahi. There is a wooden bridge over the Lakhandai, built by Rudra Prasad of Nanpur Koeli.
दूसरी मान्यता का भी उल्लेख उसीने किया है-
“Panaura, three miles south-west of Sitamarhi, also puts in a claim to the honour of being Sita’s birthplace. There is a large mud figure here about fifty feet long, on the head of which stands a second figure with two heads. This is supposed to be a representation of the conflict between Hanuman and Ravana. The mohant, in whose compound it is, has it done up every year and whitewashed.”
यह 1877 ई.की यथास्थिति है। यहाँ पुनौरा के वर्णन से स्पष्ट है कि वहाँ के महन्थ पुनौरा को स्थापित करने करने का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु लोगों की विशेष श्रद्धा सीतामढी के स्थान के प्रति है।
इसी वर्ष श्रीकृष्ण ठाकुर ने मिथिलातीर्थप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि जिन स्थानों का या तो मुझे प्राचीन उल्लेख नहीं मिला या प्राचीन उल्लेख मिलने के बावजूद वह स्थान नहीं मिला उनका उल्लेख मैंने इस ग्रन्थ में नहीं किया है। इस प्रकार के प्रामाणिक ग्रन्थ में वे भी लिखते हैं-
पद्मपुराणे।।
अथ लोकेश्वरी लक्ष्मीर्जनकस्य पुरे सुता।
शुभक्षेत्रे हलोत्खाते तारे चोत्तरफाल्गुने।
अयोनिजा पद्मकरा बालार्क्कशतसन्निभा।।
सीतामुखे समुत्पन्ना बालभावेन सुन्दरी।
सीतामुखोद्भवात् सीता इत्यस्यै नाम चाकरोत्।।
शुभक्षेत्रे सीतामहीति प्रसिद्धे सीतामुखे लाँगलपद्धतिमुखे।। वाल्मीकीये।।
अथ मे कृष्यतः क्षेत्रां लाङ्गलादुत्थिता ततः।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्तत ममात्मजा।।
वीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।।
यामलसारोद्धारे।।
अथ लाँगलपद्धत्यां मिथिलायां हरिप्रिया।
राज्ञः प्रकृष्यतः क्षेत्रमाविर्भूता धरातलात्।।
यहाँ स्पष्ट रूपसे उन्होंने सीतामही अर्थात् सीतामढी का उल्लेख किया है। इस प्रकार वर्तमान सीतामढी का एक नाम गिरिजा गाँव भी था।
इस सीतामढी अर्थात् महिला का वर्णन कनिंघम ने इस प्रकार किया है-
7.—SITA MARHI, OR MAHILA.
The extensive village of Sita-Marhi is situated a little more than 40 miles north-West of Darbhanga in a direct line, and 14. miles from the nearest point of the Nepal frontier. It is bounded on the east by ~a branch of the Sowrun Nala, and, I believe, at short intervals during the rainy season, portions of the village are inundated by the numerous small streams which become confluent in parts, and flood the country. Of the antiquities at Sita-Marhi there is little to be said, and with the exception of some temples dedicated to Site, the place is quite devoid of archaeological interest. There is at Kodeira, about [0 miles south-east of Sita-Marhi, an old well sacred to Bhairubmath (Mahadev), which evidently had a brick temple over it. This temple has sunk into a mass of brick debris out of which, and entirely rooted in the heap, there grows a very large pipal tree. ‘ The tree is clearly very old, so it must be a long time since the temple fell out of repair and out of repute. In all probability the disuse and abandonment of the temple was owing to the well drying up. The tradition which seeks to explain the name of this village, is that the goddess Sita, or janki, was born in a furrow ploughed on the present site of Sita-Marhi by her father, whose name was Raja Janak, hence Sita is sometimes called Janaki, or “daughter of janak.” But this, together with other interesting legends, is given at length in Dr. Hunter’s Statistical Account of Tirhut, an excellent work for reference. The extreme paucity of antiquarian remains at Sita-Marhi is the less to be regretted, as my chief motive for going into this sub-division of Tirhut, was to inspect a meteorite which fell at Andhdra, 4 miles south-west.
इन प्रमाणों के आधार पर माता जानकी की जन्मभूमि के रूप मे वर्तमान कोदरिया गाँव में हलेश्वर महादेव एवं भैरव स्थान के समीप सीतामढी सिद्ध होता है और पुनौरा का दावा बहुत प्राचीन नहीं है।

Mithilakshar Alphabet writing


Thursday, July 20, 2017

Lalgachi by Amalendu Shekhar Pathak

Book review 

मैथिलीमे साहित्य अकादमीक बालसाहित्यक पुरस्कारक लेल चयनित उपन्यासक मादे पढलाक बाद एकटा पाठकक रूपमे पहिल प्रतिक्रिया। -भवनाथ झा (दिनांक 21 जुलाई, 2017)

श्री अमलेन्दुशेखर पाठकजीक लालगाछी उपन्यास भेटल। ओकरा पढलाक बाद नीक लागल। किशोर अमोल एकर चरितनायक थिकाह जे गर्मीक छुट्टी बितएबाक लेल अपन गाम आएल छथि। हुनका संग किशोर-मित्र सभ सेहो छथिन्ह। ई सभ मीलि कए अपन गाममे अन्तरराष्ट्रीय घुसपैठक पर्दाफास करैत छथि आ अपन गामकें उजरबासँ बचा लैत छथि। हिनक गाम भारतवर्षक प्रतीक थीक तँ लालगाछी मिथिलाक प्रतीक। लालगाछीक भूमिकें खरीदि ओहिठामसँ आतंकवादी गतिविधि चलएबाक अन्तरराष्ट्रीय मनसूबाके ओ किशोरदल मटियामेट कए दैत अछि तकरे खिस्सा थीक लालगाछी। 

Friday, May 26, 2017

Alankarasagara by Dinabandhu Jha

Book published under supervision of Pt. Bhavanath Jha, Book Publication Consultant.
Brahmi Publication Consultancy, Patna
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4.    Transcription of Manuscript: From Old Devnagari to Modern Davnagari, From Tirhuta/Mithilakshar to Modern Devnagari.
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Phone: 9430676240


लेखक- महावैयाकरण दीनबन्धु झा
सम्पादक- गोविन्द झा
ISBN 978-93-84394-27-1
प्रकाशन वर्ष- 2017
प्रकाशन- साहित्यिकी, सरिसब-पाही, मधुबनी, 847424







Sunday, May 7, 2017

Simaria and Chamtha Ghat in Begusarai District: A Religious Annotation

मिथिला की गंगा के तट का माहात्म्य, चौमथ घाट एवं सिमरिया के सन्दर्भ में
भवनाथ झा
(यह आलेख 2016 ई. में बेगूसराय, संग्रहालय के वार्षिकोत्सव के अवसर पर पढ़ा गया है)
हाल के कुछ वर्षों में पाण्डुलिपियों के अध्ययन एवं प्रकाशन के क्रम में मुझे रुद्रयामल तन्त्र के एक अंश के नाम पर परवर्ती काल में लिखी दो रचनाएँ मिलीं हैं, जिनमें मिथिला के इतिहास एवं भूगोल पर कुछ सामग्री है। 
एक रचना रुद्रयामलसारोद्धारे तीर्थविधिः के नाम से है जिसका प्रकाशन मैथिली साहित्य संस्थान की शोधपत्रिका मिथिला भारती के नवांक 1 में हुआ है। इसमें कुल 98 श्लोक हैं। इसमें अधिकांश वर्णन मिथिला से बाहर के तीर्थों काशी प्रयाग, गंगा-सरयू संगम क्षेत्र आदि का है, किन्तु घटना चक्र के केन्द्र में मिथिला का गंगातट है, जो बेगूसराय जिला में अवस्थित चमथा घाट है।
ध्यातव्य है कि यह प्रक्षिप्त अंश है, क्योंकि रुद्रयामल तन्त्र की रचना कम से कम 10वीं शती से पहले हो चुकी है। एसियाटिक सोसायटी में ब्रह्मयामल तन्त्र की एक पाण्डुलिपि 1052 ई. में प्रतिलिपि की गयी उपलब्ध है,  जिसमें रुद्रयामल तन्त्र उल्लेख हुआ है। अतः हाल में रुद्रयामल के नाम पर जो तीन अंश उपलब्ध हुए हैं, उनमें से कोई भी अंश आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर 12वीं शती से प्राचीन नहीं हो सकता, अतः इन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से परवर्ती प्रक्षेप ही माना जायेगा, जिसकी रचना किसी क्षेत्रीय विद्वान् के द्वारा की गयी है, फलतः इन अंशों में जो भी उल्लेख है वह स्थानीय इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है।
रुद्रयामलसारोद्धारे तीर्थविधिः के अनुसार पाण्डवग्राम (वर्तमान समस्तीपुर जिला का पाँड गाँव) का एक व्यापारी सुधामा तीर्थाटन करना चाहता है वह अपने गुरु से पूछता है कि मुझे शास्त्र के अनुसार कहाँ कहाँ कैसे तीर्थाटन करना चाहिए। इस प्रश्न पर गुरु उसे तीर्थविधि का उपदेश करते हुए कहते हैं कि अपने घर के सबसे निकट में जो मन्दिर हो वहाँ पहले दर्शन करें फिर अपने गाँव के निकटवर्ती किसी महानदी के तट पर जाकर तीन रात्रि बितावें। इसके बाद हर प्रकार से पवित्र होकर वहाँ से अन्य तीर्थों के लिए यात्रा प्रारम्भ करें।
इस अंश में पाण्डवग्राम से निकटवर्ती गंगातट का स्थान निरूपित करते हुए गुरु उपदेश करते हैं कि गंगा के किनारे एक शेमलग्राम है, जो शाल्मली यानी सेमल के वन के बीच है, वहाँ चतुर्मठ तीर्थ है। हर प्रकार से पवित्र इस तीर्थ पर जाकर तुम तीन रात्रि गंगातट का सेवन करो तब आगे की यात्रा पर निकलोगे। इस उपदेश पर गुरु चतुर्मठ तीर्थ की स्थापना के बारे में कहते हैं कि पूर्व में विदेह के किसी राजा ने भी यहाँ से तीर्थयात्रा आरम्भ की थी। वे जब यहाँ पहुँचे तब इस शेमलग्राम में घनघोर जंगल था, जिसमें ऋषि-मुनि तपस्या कर रहे थे और गंगा का निर्मल तट बहुत सुन्दर था। राजा को यह सब बहुत अच्छा लगा तो उन्होंने यहाँतक पहुँचने का मार्ग बनवाया, चार मठों का निर्माण कराया और तीर्थ पुरोहितों को बसाया। 

Archeological Remains at Vanakhandinath Shiva temple at Koilakha near Bhadrakali Temple

कोइलख गामक वनखण्डीनाथ महादेव मन्दिरमे पुरातात्त्विक सामग्री

दिनांक 05 मई, 2017 कें हम कोइलख गाम स्थित भद्रकाली मन्दिरमे दर्शनक लेल गेलहुँ। ओहीठाम मन्दिरक सामने उत्तरमे एकटा महादेव मन्दिर अछि। ई पूरा परिसर ऊँच डीहपर अवस्थित अछि। परिसरक द्वारपर वनखण्डीनाथ महादेव मन्दिर लिखल अछि। एकर ई नाम कोन साक्ष्यक आधारपर पड़ल, से अज्ञात अछि। मन्दिरमे दू टा शिवलिंग स्थापित छैक जे नव अछि। एही गर्भगृहमे दक्षिण-पश्चिम कोणमे एकटा चबूतरापर कारी पाथरक दू टा पुरातात्त्विक सामग्री अछि जे एहि स्थानक प्राचीनताक प्रमाण अछि। मन्दिरक पुजारीक सूचनाक अनुसार एही परिसर सँ ई दूनू सामग्री भेटल, जकरा एकटा चबूतरा बनाए राखि देल गेल।



Tuesday, May 2, 2017

Birthplace of Goddess Sita


मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहुत कोमल है और यहाँ बाढ के कारण बहुत तबाही हुई है। पहाड नहीं होने के कारण कच्ची मिट्टी, लकड़ी घास-फूस से यहाँ घर बनाने की परम्परा रही है अतः यहाँ अधिक पुराने अवशेष पुरातात्त्विक साक्ष्य के रूप में मिलना असंभव है। अतः किसी स्थान के निर्धारण के लिए हमे साहित्यिक स्रोतों और किसी स्थान के प्रति लोगों की श्रद्धा को ही स्रोत मानने की मजबूरी है। ये दोनों स्रोत जहाँ एक दूसरे से मेल खाते हैं उसे ऐतिहासिक साक्ष्य माना जा सकता है। सीता के जन्मस्थान के निर्धारण के विषय में भी यहीं स्थिति है। इनमें से साहित्यिक स्रोत विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। राजा जनक की पुत्री जानकी का जन्म मिथिला में हुआ था इस तथ्य पर कोई मतभेद नहीं है। वाल्मीकि रामायण से लेकर जहाँ कहीं भी सीता के जन्म का उल्लेख हुआ है, मिथिला का उल्लेख हुआ है। प्राचीन साहित्यों में मिथिला का उल्लख दो प्रकार से मिलता है
1.     राजधानी के रूप में
2.     पूरे राष्ट्र के रूप में।
बौद्ध पाली ग्रन्थों में विदेह में मिथिला की अवस्थिति मानी गयी है-
1.     अथ खो उत्तरो माणवो सत्तन्‍नं मासानं अच्‍चयेन विदेहेसु येन मिथिला तेन चारिकं पक्‍कामि। (ब्रह्मायु सुत्त)
2.     मिथिला च विदेहानं, चम्पा अङ्गेसु मापिता।
बाराणसी च कासीनं, एते गोविन्दमापिताति॥ (महागोविन्द सुत्त)
यहाँ स्पष्ट रूप से मिथिला एक क्षेत्र का नाम है, जो राजधानी थी। पूरे राष्ट्र के रूप में मिथिला का उल्लेख 1000 वर्ष से पुराना नहीं है।
    इस प्रकार, सीता के जन्मस्थान मिथिला का उल्लेख जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, तो हमें मानना होगा कि यह मिथिला विदेह राज्य की राजधानी थी।
यह मिथिला कहाँ थी, इसके निर्धारण के क्रम में विद्वानों ने अनेक तर्क प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि रामायण में मिथिला की अवस्थिति का एक ही साक्ष्य है जिसमें कहा गया है कि गंगा और सोन के संगम पर नदी पार कर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ विशाला नामक नगरी पहुँचे और वहाँ से पूर्व-उत्तर कोण की ओर चलकर राजा जनक की यज्ञ-स्थली पर पहुँचे।

Where was the Mithila and the capital of King Janak

The site of ancient Mithila प्राचीन काल की मिथिला नगरी का स्थल-निर्धारण (जानकी-जन्मभूमि की खोज)  -भवनाथ झा मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहु...